नेता पुलिस बनाम जनता पुलिस

Leader police vs public police

पिछले सप्ताह ‘सदेव आपके साथ, आपके लिए’ नारा तार तार हो गया जब पूरे देश में गोरक्षकों ने हिंसा फैलाई। राज्यों में लोगों की पीट पीटकर हत्या की गई, विधायक और वे व्यक्ति जिन्हें आम आदमी की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा वही उसमें सक्रिय भागीदार बन गए और हिंसा करने वालों को संरक्षण देने लग गए। प्रश्न उठता है कि यह नेता पुलिस है या जनता की पुलिस है? इस सबकी शुरूआत राजस्थान के अलवर जिले में हुई जहां पर दोपहर 12.41 बजे रामगढ़ पुलिस को सूचना दी गई कि गायों की तस्करी हो रही है। पुलिस वहां 1.15 बजे पहुंची और पाया कि रकबर कीचड़ में गिरा पड़ा है। उसे अस्पताल पहुंचाया गया जहां उसे मृत घोषित किया गया किंतु अस्प्ताल पहुंचाने में उसे तीन घंटे लग गए। पुलिस वाले उसे एक गांव में ले गए जहां पर वे चाय के लिए रूके। फिर पुलिस स्टेशन पहुंचे, रकबर के कपडे बदले गए और फिर अस्पताल के लिए निकले। आसपास खडेÞ लोगों ने देखा कि पुलिस वाले उसे पीट रहे हैं और गाली दे रहे हैं। पुलिस महानिदेशक का कहना है यह निर्णय लेने में गलती हुई है और राज्य के गृह मंत्री कहते हैं कि पुलिस हिरासत में उसके साथ मारपीट हुई। मैंने जांच का आदेश दे दिया है। केन्द्रीय मंत्री मेघवाल कहते हैं कि लोगों की पीट-पीटकर हत्याएं मोदी की लोकप्रियता के कारण हो रही हैं और सबने अपना पल्ला झाड़ दिया।

केरल में उदय कुमार को इसलिए पीट पीटकर मार दिया गया कि उसने पुलिस वालों से अपने चार हजार रूपए वापस मांगे जिन्हें पुलिस वालों ने उससे 2005 में उस समय ले लिए थे जब उसे गिरफ्तार किया गया था। यह मामला 13 साल तक चला और दो सिपाहियों को दंड दिया गया। रकबर की पीट-पीटकर हत्या और उदय कुमार की हिरासत में मौत इस बात का प्रमाण है कि पुलिस वाले सर्वशक्तिमान बन रहे हैं। जब राज्य लोगों के विरुद्ध हो जाता है या अपराधकर्ता है और राज्य के तंत्र जैसे पुलिस को खुली छूट के साथ उनके साथ अत्याचार करने की अनुमति देता है तो राज्य तंत्र विफल हो जाता है। अल्पसंख्यकों और उनके निकायों को वोटों की खातिर लेनदेन का माध्यम बनाया जाता है। अल्पसंख्यकों के हत्यारों को माला पहनाई जाती है और मिठाई खिलायी जाती है। ऐसा वातावरण बन गया है जहां पर पुलिसवाले खून के प्यासे गुंडे बन गए हैं और उन्हें राज्य का भी समर्थन प्राप्त है। इससे पहले पिछले वर्ष अलवर में पहलू खान की भी पीट-पीटकर हत्या की गयी थी और सभी छह आरोपियों को क्लीन चिट मिल गयी थी।

किसी भी मोहल्ला, जिला, शहर या राज्य में चले जाओ, यही स्थिति देखने को मिलती है। छोट- मोटे अपराध हो या बडे अपराध निर्ममता पुलिस का पर्याय बन गयी है। यदि आप किसी से पल्ला झाड़ना चाहते हैं तो पुलिस वाले गुंडे को बुला दो। बहू जलाने की घटनाएं हो या सड़क पर मारपीट, कोर्ट के बाहर मामलों का निपटान हो या फर्जी मुठभेड हो, पुलिसवाले इन कार्यों को बखूबी करते हैं और जिससे आम व्यक्ति डरा हुआ रहता है।

हमारे राजनेताओं के बारे में कम ही कहा जाए तो अच्छा है। सभी जानते हैं कि क्या हो रहा है। अनेक पुलिस आयोगों का गठन किया गया है और उन्होंने अपनी आठ रिपोर्टें दी हैं जिन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है क्योंकि प्रश्न उठता है पुलिस पर किसका नियंत्रण हो। राज्य सरकार या किसी स्वतंत्र निकाय का। यह एक दुविधा भरा प्रश्न है। जिसके उत्तर की अपेक्षा हमारे राजनेताओं से नहंी की जा सकती है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या पुलिसवालों को उससे अधिक दोष दिया जाता है जितना वे दोषी हैं? क्या मुख्य दोषी राजनेता है? सच्चाई इसके बीच की है। दोनों अपने-अपने हितों के लिए काम करते हैं। जिसके कारण व्यवस्था बिगड़ जाती है। राजनीति के अपराधीकरण ने अपराध और राजनीतिक अपराधियों के राजनीतिकरण का रास्ता साफ किया। जिसके कारण हमारी राजनीति और पुलिस व्यवस्था निर्मम और अमानवीय बन गयी।

2005 से 2015 के बीच प्रति लाख व्यक्तियों पर अपराधों में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इस अवधि में केन्द्र और राज्य सरकारों के बजट में 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राज्य पुलिस बलों में 5.50 लाख और केन्द्रीय पुलिसबलों में 7 प्रतिशत रिक्त हैं। उनके पास हथियारों और वाहनों की कमी है। राज्यों द्वारा पुलिस आधुनिकीकरण के लिए दिए गए पैसे में से सिर्फ 14 प्रतिशत का उपयोग किया गया है। पुलिस द्वारा 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक या आधारहीन होती हैं। पुलिस में 1973 से सुधार करने का प्रयास किया जा रहा है किंतु राजनीतिक क्षत्रप पुलिस पर नियंत्रण छोडना नही चाहते हैं और उच्चतम न्यायालय के 2006 के आदेश को लागू करना नहीं चाहते हैं। इस माह के आरंभ में भी उच्चतम न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों के बारे में राज्य सरकारों की शक्तियां कम करने का प्रयास किया क्योंकि महत्वहीन पदों पर स्थानांतरण की धमकी, पदावनति और निलंबन आदि के कारण अधिकतर पुलिसवाले अपने माई-बाप मंत्री का कहना मानते हैं विशेषकर चुनाव के समय जब राजनेता चाहते हैं कि उनके गुंडे जेल से छूट जाएं जो उनके आदेश नहंी मानते उन्हें अपमानित किया जाता है और महत्वहीन पदों पर नियुक्त किया जाता है। जिसके चलते उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में डीएसपी एक जगह पर औसतन तीन माह तक रह पाता है।

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार पुलिस अधिकारियों द्वारा समझौता अपवाद के बजाय नियमित बन गया है जिसके चलते भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और जो पुलिस बलों में आम बात हो गयी है। हफ्ता और चाय पानी पुलिस वालों का जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता है। हाल ही में दिल्ली पुलिस के एक डीसीपी के पास करोडों रूपए की संपत्ति मिली है जबकि उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक ने खुलासा किया कि नाभा जेल तोडकर भागने वाले अपराधियों के विषय में चल रही जांच में एक पुलिस महानिरीक्षक भी संदिग्ध है। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार उत्तर प्रदेश और बिहार में एक लाख की जनसंख्या पर क्रमश: 94 और 65 पुलिसकर्मी हैं। जबकि राष्ट्रीय औसत 137 है। इसकी तुलना में आस्टेÑलिया में 217, हांगकांग में 393, मलेशिया में 370, दक्षिण कोरिया में 195, ब्रिटेन में 307 और अमरीका में 256 हैं। यही नहंी पुलिसकर्मियों को वीआईपी सुरक्षा में भी तैनात किया जाता है और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों उन्हें अपने घर के कामों पर भी लगा देते हैं। पुलिस व्यवस्था को प्रभावी बनाए जाने के लिए पुलिसकर्मियों को स्थानीय अपराधियों और अपराधों – हत्या, बलात्कार, अपहरण, सेंधमारी, संवेदनशील मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन आदि की जानकारी होनी चाहिए। इसलिए केवल पुलिस की भर्ती से काम नहंी चलेगा। उनका कौशल उन्नयन भी किया जाना चाहिए, उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए और उनके पास अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी और हथियार भी होने चाहिए।

पुलिस को जनता की पुलिस बनाने के लिए आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता है। उद्देश्य कानून का शासन स्थापित करना होना चाहिए। कानून और व्यवस्था को दो अलग विभागों में बांटा जाना चाहिए और दोनों के लिए अलग-अलग पुलिस बल होना चाहिए। पुलिस अधिकारियों को दबाव से मुक्त किया जाना चाहिए और उनकी तैनाती, स्थानांतरण, कार्यकाल, आदि के बारे में पारदर्शिता बरती जानी चाहिए। कानून और व्यवस्था को जांच से अलग किया जाना चाहिए और पुलिसकर्मियों द्वारा शक्तियों के दुरूपयोग को रोकने के लिए पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकारी का गठन किया जाना चाहिए। साथ ही नेताओं को पुलिस के कार्यों में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। हमारे नेताओं को इस ओर ध्यान देना होगा।
हमारे पुलिस बल की आॅप्रेशनल कमान में आमूल-चूल बदलाव की आवश्यकता है। केन्द्र और राज्य सरकारों को सुर्खियों से परे सोचना चाहिए और उन्हें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जब दबाव बढ़ता है तो विकल्प सीमित हो जाते हैं और कठिन समय में कठिन कार्यवाही करनी पड़ती है। हरमन गोल्डस्टीन ने सही कहा है लोकतंत्र की शक्ति और उसमें लोगों के जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण पुलिस द्वारा अपने कर्तव्यों के निवर्हन की क्षमता पर निर्भर करता है। क्या आम आदमी पुलिस वाला गुंडों के हाथों का शिकार बनता रहेगा? समय आ गया है कि हम इस बारे में पुनर्विचार करें कि किसका डंडा, किसकी लाठी और किसकी भैंस।

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