आज 1 मई को भारत समेत दुनिया के कई देशों में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस (Labour Day 2023) मनाया जा रहा है। दुनिया के कई देशों में 1 मई के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है। भारत में मजदूर दिवस को श्रमिक दिवस लेबर डे, मई दिवस, कामगार दिन, इंटरनेशनल वर्कर डे, वर्कर डे के नाम से भी जाना जाता है। यह दिन दुनिया के मजदूरों और श्रमिक वर्ग को समर्पित है।
वहीं पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की बेटी हनीप्रीत इन्सां ने ट्वीटर के माध्यम से ट्Þवीट कर मजदूर दिवस पर लिखा, ‘ इस अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर, आइए दुनिया भर के श्रमिकों की कड़ी मेहनत, समर्पण और प्रतिबद्धता का सम्मान करें और उनकी सराहना करें, जो हर दिन अपने-अपने समाज में चीजों को सुचारू रूप से चलाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देते हैं! #मजदूर दिवस
On this International Labour Day, Let’s honor and appreciate the hard work, dedication, and commitment of workers around the world who make significant contributions to their respective societies each day to keep things running smooth! #LabourDay pic.twitter.com/S0jofwFvfj
— Honeypreet Insan (@insan_honey) May 1, 2023
मशीनी युग में कामगारों के काम-धंधों पर लगा ग्रहण?
श्रमिकों की स्थिति गुजरे जमाने के मुकाबले (Labour Day 2023) मौजूदा वक्त में बहुत बदहाल है। मॉर्डन समय में तरह-तरह की आई मशीनों ने श्रमिकों का काम धंधा छीन लिया। इसके वास्तविक उदाहरण समाने हैं, जिस प्रकार स्टीम इंजन ने मेहनतकशों का रोजगार छीना था। उसी प्रकार फोटोकापी मशीन ने टाइपिस्टों का, उबर-ओला ने टैक्सी स्टैंडों का, कम्प्यूटर ने सांख्यिकी गणित करने का और ई-मेल ने डाकिए का रोजगार हड़प लिया है। वहीं, ट्यूबवेल और टै्रक्टर ने खेत मजदूरों को पैदल किया। कॉल सेंटर, मोबाइल डाउनलोड आदि में नए-रोजगारों का सृजन जरूर हुआ, लेकिन इन्होंने भी श्रमिकों की कमर तोड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। खेत-मजदूर की आय जुलाहे की आय की तरह हो गई है। मजदूरों के हाथों में भी मोबाइल है, जिसे हुकूमते अपनी कमियां छुपाकर उसे विकास की तस्वीर बतलाती हैं।
जबकि, सच्चाई ये है मजदूरों के पास मोबाइल को रिचार्ज करने भर का भी पैसा नहीं होता। कामगार जब तक खुशहाल नहीं होगा, तरक्की की सभी बातें धुंधली ही रहेंगी। श्रमिकों की बदहाली पर जब गंभीरता से गौर करें, तो पता चलेगा कि ये वर्ग कितना असहाय है। मात्र सौ गज के मकान के लेंटर को डालने में कभी दर्जनों श्रमिक जुटा करते थे। कार्य पूर्ण होने में एकाध दिन लगते थे। पर, अब वही काम मशीन चंद घंटों में निपटा देती है जिसमें कामगारों की जरूरत ही नहीं, बल्कि एक या दो मैकेनिक ही प्रयाप्त होते हैं। इससे सहज अनुमान लगा सकते हैं कि कैसे मशीनरी तंत्र में कामगारों के काम धंधे देखते ही देखते सिमट गए। कामगार ह्यश्रमिक दिवसह्य के मायने को कतई नहीं समझते। जबकि, ये दिवस कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति को ही समर्पित होता है।
लेकिन ये अंतिम इंसान बीते कुछ दशकों से हाशिए पर आ खड़ा हुआ है। इन्हें भी विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कागजी वायदे होते हैं। पर, धरातल पर सब शून्य, निल बटे सन्नाटा! इनके हिस्से का पारिश्रमिक अब पूर्ण रूप से छिन चुका है। ये सच है कि कामगारों के राहों में मशीनों ने ही कांटे बिछाए हैं। महीनों चलने वाले कामों को मशीन से तुरंत हो जाने के बाद लोगों ने श्रमिकों की जरूरत को नकार दिया है। इसके बाद अगर तुक्के से मजदूरों के हिस्से थोड़ा-बहुत काम आता भी है, तो उसका उन्हें पूरा मेहनताना नहीं मिल पाता।
दरअसल, ये तस्वीरें देखकर लगता है कि हिंदुस्तान की तरक्की सिक्के के दो पहलू की तरह है। एक खुशहाल और दूसरी बदहाल? दोनों की ताजा तस्वीरें हमारे सामने हैं। एक वह जो ऊपरी तौर पर काफी चमकीली है। इस लिहाज से देखें तो पहले के मुकाबले देश की शक्ल-व-सूरत काफी बदली है। अर्थव्यवस्था अपने पूरे शबाब पर है और कहने को तो उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग सभी खुशहाल हैं लेकिन तरक्की की दूसरी तस्वीर भारतीय श्रमिकां और किसानों से वास्ता रखती है जिनकी बदहाली की कहानी शायद बताने की आवश्यकता नहीं? ये बड़ी बिड़बना है कि जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद भी श्रमिकों को गुजर-बसर करने लायक पारिश्रमिक नहीं मिल पाता।
केंद्र व राज्य सरकारों ने आज तक कोई ऐसी सरकारी (Labour Day 2023) योजना या रोजगारपरक नीति नहीं बनाई जिससे कामधंधे से जुड़े असंख्यक श्रमिक हाशिए से बाहर आ सकें। अगर कुछ बड़े मेट्रो शहरों की बात न करके छोटे कस्बों एवं गांव-देहातों की बात करें तो वहां पर अपना जीवन व्यतीत कर रहे मजदूर एवं किसान महज चार-पांच सौ रुपये ही प्रतिदिन कमाते हैं। वह भी दस घंटों की हाड़तोड़ मेहनत मशक्कत के बाद। इतने पैसे में वह अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी भी बामुश्किल से ही जुटा पाता है। मजदूरों की हालत बहुत ही दयनीय है, सियासी लोगों के लिए वह सिर्फ और सिर्फ चुनाव के समय काम आने वाला एक मतदाता है। पांच साल बाद उनका अंगूठा या ईवीएम मशीन पर बटन दबाने का काम आने वाला वस्तू मात्र है। कोई भूखा ना सोए, सबको राजगार मिले, मजदूरों के बच्चे भी पढ़-लिख पाए, ऐसी योजना बनाए जाने की सख्त जरूरत है। काम धंधे को विस्तार गांव-देहातों तक करना होगा, ताकि ग्रामीण बिना वजह शहरों में ना भागे।
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