देश के राज्य प्रबंधों की खामियों के शिकार हो रहे किसानों के लिए अपना आंदोलन ही निराशा भरा व सिरदर्दी वाला बन गया है। आखिर कई किसान संगठनों ने इसे 6 जून तक ही सीमित करने की घोषणा कर दी है। एक-दो संगठनों ने तो आंदोलन में भाग हीं नहीं लिया। कृषि की यह विडम्बना है कि अपने मामलों को सार्वजनिक मंच पर उभारने का एक मौका ही हाथों से नहीं निकला बल्कि नुक्सानदेह भी साबित हुआ है। कृषि आंदोलन को समाज के अन्य वर्गाें से जरूरी हमदर्दी व समर्थन नहीं मिला। बल्कि इसकी आलोचना हुई है।
दरअसल आंदोलन के लिए न तो पूरी तैयारी की गई थी व न ही इस बात का ध्यान रखा गया कि अगर असामाजिक तत्व किसानों की आड़ में आंदोलन को बिगाड़ते हैं तो उससे कैसे निपटना है? आंदोलन की रूपरेखा में सिर्फ इस बात की ही घोषणा की गई थी कि किसान गांवों से दूध व सब्जियां नहीं भेजेंगे। यह भी कहा गया था कि अगर कोई शहर वासी गांवों से दूध व सब्जी खरीदने आएगा तो उसे किसान बेच सकेगा लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उल्ट, आंदोलन के लिए किसानों को सब्जी न बेचने के लिए प्रेरित करने की बजाए दूधवालों पर हमले किए गए व इसके साथ-साथ शहरों में दुकानों पर भी हमले किए गए व सरेआम दूध फेंका गया।
पीड़ित किसानों का अक्स हमलावर का बन गया। रेहड़ी वालों को धमकियां दी गई। कई संगठनों ने इन हरकतों की निंदा करते इस आंदोलन में असामाजिक तत्वों की घुसपैठ होना तक करार दे दिया। तीसरे दिन तक किसान संगठन असामाजिक तत्वों के सामने बेबस हो गए व चौथे दिन आंदोलन से हाथ खींच लिए। किसी भी आंदोलन पीछे विचारधारा चाहे कितनी भी मजबूत क्यों न हो उसे जनता के समर्थन के बिना कामयाबी हासिल नहीं होती।
किसान संगठन आंदोलन के लिए किसानों को ही प्रेरित नहीं कर सके व किसान सरेआम दूधवालों को ही दूध बेचते रहे। चूंकि दूधवालों को किसानों के बिना और कहीं से दूध नहीं मिलता? जो सड़कों पर बिखेरा गया। आंदोलन प्रेरणा से चलते हैं। धक्केशाही लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ हैै। किसानों की मांगें जायज हैं व इन मामलों का हल पहल के आधार पर ही होना चाहिए लेकिन आंदोलन में मानवीय पहलुओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता। सहमति, समर्थन, त्याग, मेहनत, योजनाबंदी जैसे तत्वों की कमी में किसान बड़ा संदेश देने में नाकाम साबित हुए हैं लेकिन फिर भी केन्द्र सरकार को कृषि मामलों पर तुरंत ध्यान देना चाहिए।