सुरम्य कश्मीर की वेदना जारी है। जम्मू कश्मीर के बारे में राजनीतिक भारत कलहपूर्ण, शोर शराबे के दौर से गुजर रहा है। आज हर कोई जम्मू कश्मीर राज्य को दो संघ राज्य क्षेत्रों लद्दाख और जम्मू कश्मीर में विभाजित करने की वर्षगांठ पर इसके प्रभावों और परिणामों पर चर्चा कर रहा है। प्रश्न उठता है कि क्या मोदी सरकार ने राज्य के विकास, वहां सामान्य स्थिति की बहाली तथा आतंकवाद को समाप्त करने के अपने वायदों को पूरा किया है। यह सच है कि घाटी में बदलाव लाने के लिए एक साल पर्याप्त नहीं है क्योंकि जम्मू कश्मीर मे पिछले सात दशक से अधिक समय से हिसां, कलह और अलगाव की भावना पनप रही है। राज्य में भारी सुरक्षा बंदोबस्त हैं। इसके अलावा विश्वास का अभाव है। पाकिस्तान घाटी में खून खराबे को बढावा देने में सहायता कर रहा है और घाटी के लोगों में धार्मिक कट्टरपन बढा रहा है। साथ ही वहां के लोग राजनीतिक मांगे कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में अस्थिर स्थिति बनी हुई है।
गत एक वर्ष में जम्मू कश्मीर में तीन संवैधानिक प्रमुख बदले गए। राजनीतिज्ञ सतपाल मलिक, नौकरशाह मुर्मू और अब पूर्व मंत्री मनोज सिन्हा किंतु सरकार लोगों में स्वीकार्यता की भावना पैदा करने या जमीनी स्तर पर दृश्य अवसंरचनात्मक विकास करने में विफल रही है। एक वरिष्ठ सुरक्षा रणनीतिकार के शब्दों में एक वर्ष के बाद हमारे पास लोगों को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है। हम सुरक्षा स्थिति और अवसंरचना विकास दोनों मोर्चों पर विफल रहे हैं। विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या सिन्हा जम्मू कश्मीर से धारा 370 समाप्त करने के बाद पैदा हुए राजनीतिक शून्य को भरने और लोगों के साथ राजनीतिक संवाद स्थापित करने, वहां पर राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने में सफल होते हैं।
इसके अलावा राज्य में चुनाव करवाए जाने हैं और शांति की स्थापना अत्यावश्क है। सिन्हा की नियुक्ति से कश्मीर के राजनेताओं में उत्साह देखने को नहीं मिला है। वे अभी भी संशय में हैं। जम्मू कश्मीर के राजनेताओं का मानना है कि दिल्ली के एक और व्यक्ति की नियुक्ति दिल्ली के मिशन के लिए की गयी है। वहां के राजनेताओं का कहना है कि यह भाजपा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुस्लिम विरोधी एजेंडा को लागू करने और वहां पर जनांकिकीय बदलाव करने, लोगों को मताधिकार और अन्य अधिकारों से वंचित रखने का भाग है।
घाटी में आज भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। वहां पर प्रशासन पंगु बनता जा रहा है जिसके चलते लोगों और प्रशासन के बीच खाई बढती जा रही है। फलत: कट्टरवादी तत्व राजनेताओं से अधिक सक्रिय हैं। इसके अलावा घाटी के आतंकवादियों ने नवनिर्वाचित पंचायत नेताओं को निशाना बनाकर स्थिति को और जटिल बना दिया है। गत दशकों में कश्मीर हमारे राजनेताओं के लिए अपने राजनीतिक परीक्षण करने की प्रयोगशाला रही है। वे वहां नित नए नए राजनीतिक प्रयोग करते रहे हैं। पाकिस्तान की चालों को विफल करने में कुछ सफलता मिली है। सीमा पार आतंकवाद को समाप्त करने में हमारे सैनिकों ने साहस दिखाया है। हालांकि राज्य में विपक्ष और राजनेताओं में विरोध के स्वर पैदा हो रहे हैं जिसके चलते कश्मीरी लोगों में आका्रेश पैदा हो रहा है।
गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि पूर्व जम्मू कश्मीर राज्य में आतंकवाद का मुख्य कारण धारा 370 है और इसे समाप्त करने से आतंकवाद को समाप्त करने में सहायता मिलेगी किंतु यह बात गलत साबित हुई। इस वर्ष अब तक 181 आतंकवादी हमले हुए हैं जिनमें 98 आतंकवादी मारे गए हैं। आतंकवाद के साथ साथ लोगों में कट्टरता बढती जा रही है और आतंकवादी संगठनों में स्थानीय युवा भर्ती हो रहे हैं। लोगों में अलगाव की भावना बढ रही है। इसके साथ ही उनमें आक्रोश पैदा हो रहा है और आतंकवादियों को मारने से भी प्रशासन लोगों का विश्वास जीतने में सफल नहीं हुआ है।
पीडीपी की पूर्व मुख्यमंत्री जो जून 2018 तक भाजपा के साथ गठबंधन सरकार की हिस्सा थी आज भी लोक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत नजरबंद है। नेशनल कांफ्रेस के पिता-पुत्र अब्दुल्ला और सोज जैसे कांग्रेसी नेता को छोडकर अधिकतर नेता नजरंबद हैं। पिछले सप्ताह उपराज्यपाल ने फारूख अब्दुल्ला द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक की अनुमति नहीं दी जिसके चलते स्थानीय नेताओं, अलगाववादी नेताओं और दक्षिण कश्मीर के आक्रोशित युवाओं में नाराजगी बढती जा रही है। सिन्हा को अपनी राजनीतिक कुशलता से इन समस्याओं का समाधान करना होगा और इसके लिए उन्हें सबसे पहले सभी संबंधित पक्षों से राजनीतिक संवाद कायम करना होगा, राजनीतिक प्रक्रिया में तेजी लानी होगी और राज्य में शीघ्र चुनाव करवाने होंगे।
जम्मू-कश्मीर में एक निर्वाचित विधान सभा, मुख्यमंत्री अैर मंत्रिमंडल की अवश्यकता है जो राज्य के विकास को आगे बढा सके। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि एक दल को बहुमत मिलता है या त्रिशंकु विधान सभा बनती है। साथ ही उन्हें राज्य में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया में भी तेजी लानी होगी। इसके लिए स्थानीय लोगों का सहयोग लेना होगा। केन्द्र सरकार के कदम बताते हैं कि उसने उस राजनीतिक संस्कृति को नहीं छोडा जो पिछले 70 दशकों में कांग्रेस सरकारों ने अपनायी थी। सरकार राज्य में एक तीसरा राजनीतिक मोर्चा पैदा करना चाहती है जो भाजपा के साथ गठबंधन करे ताकि वह राज्य में सत्ता में आ सके।
कश्मीर में मुख्य धारा की राजनीति कश्मीरी पहचान के इर्द गिर्द घूमती है। यह अलग कश्मीरी पहचान केन्द्र के समक्ष कश्मीर की स्वायत्तता और राज्य को प्राप्त विशेष संवैधानिक दर्जे के माध्यम से उसके संरक्षण की आवश्यकता कश्मीर में मुख्य धारा की राजनीति के मुख्य मुद्दे रहे हें। अब धारा 370 को समाप्त करने और राज्य को विभाजित कर दो संघ राज्य क्षेत्र बनाने से इस राजनीति का औचित्य नहीं रह गया।
यही नहीं अब इन नेताओं के पास मुद्दे भी नहीं रहे गए हैं। इसके अलावा सिन्हा की एक अन्य प्राथमिकता केन्द्र और संघ राज्य क्षेत्र के बीच बेहतर समन्वय सुनिश्चित करने का भी है। राज्य में 4जी नेटवर्क के न होने का तात्पर्य है कि कश्मीरी जनता और राजनेताओं की राय को दबाया जा रहा है। उसे अभिव्यक्त करने का मौका नहीं दिया जा रहा है। सरकार यह कहकर इसे उचित ठहरा रही है कि इसके चलते लोगों की जान बच रही है और घाटी में हिंसक प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं। किंतु लोग मौन रहकर अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं। यह एक तरह का सविनय अवज्ञा आंदोलन है और वे केवल आवश्यक कार्यों के लिए बाहर निकल रहे है।
कोरोना महामारी के चलते स्थिति और बिगडी है। कश्मीरियों के मूल अधिकारों पर हमला करने से उनमें अलगावववाद की भावना बढी है जबकि विकास के वायदे पूरे नहीं किए गए हैं। इसके अलावा सरकार को कश्मीर को भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ जोडना होगा। घाटी में व्यापक आधार वाले हितधारकों का निर्माण करना होगा जिससे घाटी में कलह शांत हो किंतु पिछले पांच वर्षों से जब मोदी ने कश्मीर के लिए 58627 करोड़ रूपए के विकास पैकेज की घोषणा की थी तब से परियोजनाएं धीमी गति से आगे बढ रही है और सुरक्षा की स्थिति अनिश्चितता बनी हुई है। प्राइवेट निवेशक राज्य में जारी आतंकवाद के कारण वहां अपना निवेश करना नहीं चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि विकास से कश्मीर विवाद का समाधान नहीं होगा।
केन्द्र सरकार के लिए आज कश्मीर की नीति दुविधापूर्ण है। 2019 में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद जो शांति और विकास का इन्द्रधनुष दिखाया गया था वह अब क्षितिज पर नहीं है। राज्य में विभिन्न स्तरों पर जारी संघर्ष को संवैधानिक बदलावों या आर्थिक पैकेज देने से नहीं सुलझाया जा सकता है। वस्तुत: इस समस्या के समाधन के लिए एक ठोस रणनीति बनाए जाने की आवश्यकता है। भारत को आतंकवादियों और अलगावादियों के आय के स्रोतों को बंद करना होगा, घाटी में पाकिस्तान के प्रभाव को कम करना होगा और कश्मीरियों को भारत के साथ जोड़ना होगा।
भारत के राष्ट्रीय हितों को आगे बढाने के लिए मोदी को हर संभव प्रयास करने होंगे और इस दिशा में धीरे किंतु निरंतर प्रयास जारी रहने चाहिए। नि:संदेह सभी लोग चाहते हैं कि राजनीतिक, सामााजिक, सांस्कृतिक, धामिक, मूल वंशीय आदि दृष्टि से कश्मीर का भारत में पूर्ण एकीकरण हो किंतु क्या कश्मीर शेष भारत के साथ मिलना चाहता है। केन्द्र और घाटी के बीच पैदा हुई खाई को भरना आवश्यक है। क्या कश्मीरी भारत का हिस्सा बनना चाहते है? इन प्रश्नों का उत्तर आगे की राह दिखाएगा। तब तक भारत को धैर्य रखना होगा और एक नई सुबह की प्रतीक्षा करनी होगी।
–पूनम आई कौशिश
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