लोगों को उनके मौलिक अधिकारों के बारे में जागरुक करने और उन्हें सामान्य जीवन में न्याय व्यवस्था से रूबरू कराने के मकसद से प्रतिवर्ष 9 नवंबर को राष्ट्रीय न्यायिक दिवस के रूप में मनाया जाता है। 9 नवंबर को ही यह दिन मनाए जाने के पीछे वजह है कि 1955 में न्यायिक सेवा संगठन का गठन हुआ था।
भारतीय संविधान की धारा 39ए के तहत हर राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने सभी नागरिकों को समान न्यायिक सुविधाएं प्रदान कराएं। साथ ही संविधान में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि समाज के हर वर्ग को बिना जाति-धर्म और वर्ण देखे न्याय मिले। रोटी, कपड़ा और मकान आरंभ से भारत की तीन बुनियादी आवश्यकताएं हैं, जो मानव के जीने के अधिकार की रक्षा करते हैं, परंतु गरिमामय जीवन के अधिकारों की नहीं। आज के आधुनिक समाज के लिए इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि भी महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा वैश्वीकृत दुनिया के लिए आज भ्रष्टाचारमुक्त समाज का अधिकार भी महत्वपूर्ण हो गया है।
भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जो कि एक चुनौती है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में इसकी अनिवार्यता और भी बढ़ जाती है। हालांकि भारतीय संविधान सामाजिक न्याय के क्रियान्वयन के लिए तीनों स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका को स्पष्ट निर्देश देता है, परंतु कुछ नीतिगत और व्यावहारिक कारणों से इस क्षेत्र में हमारा प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। इसके पीछे एक तरफ राजनीतिक दबाव तो दूसरी ओर संवैधानिक संस्थाओं के उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों की उदासीनता प्रमुख कारण है।
न्याय व्यवस्था में देरी के चलते बहुत से लोग न्याय की पहुंच से दूर हैं। एक तरफ न्यायाधीशों की कमी है तो दूसरी ओर मुकदमों का अंबार बढ़ रहा है। यूं तो सरकार ने ग्राम न्यायालय, लोक अदालत, उपभोक्ता अदालत आदि कई उपाय मुकदमों के बोझ को हल्का करने के लिए किए हैं फिर भी कई कारणों से अदालतों में आज भी लाखों की संख्या में मुकदमे लंबित हैं। इन समस्याओं से सामाजिक असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है।
गौरतलब है कि देशभर की अदालतों में करीब साढ़े तीन करोड़ केस लंबित हैं। इन मामलों को निपटाने के लिए 2373 अतिरिक्त जजों की जरूरत है। यह बात संसद में पेश हुए आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में सामने आई है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा संसद में पेश सर्वेक्षण के मुताबिक, कुल मामलों में 87.5 प्रतिशत मामले जिला और निचली अदालतों में हैं। लंबित मुकदमों के बढ़ते बोझ के कारण हमारे देश की अदालतों से त्वरित न्याय मिल पाना दिनोंदिन दूभर होता जा रहा है।
दरअसल, भारत में सुस्त व लेटलतीफ न्यायिक प्रणाली के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। जिसमें पहला तो यह है कि देश में आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त नहीं है। जहां अमेरिका में 10 लाख की आबादी पर 135 न्यायाधीश हैं, कनाडा में 75, ऑस्ट्रेलिया में 57 और ब्रिटेन में 50 न्यायाधीश हैं। जबकि भारत में इनकी संख्या महज 13 है।इसके अलावा अदालतों में न्यायाधीशों के पद सालों साल खाली पड़े रहते हैं। आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों में जजों के तकरीबन 4,655 पद खाली पड़े हैं। एक तरफ अदालतों में मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है, तो दूसरी ओर अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति ही नहीं की जा रही है।
ऐसी स्थिति में लंबित मुकदमों के निपटारे एवं त्वरित न्याय की कल्पना कैसे की जा सकती है? मुकदमों की बढ़ती संख्या के आधार पर अनुमान है कि आगामी 10 वर्षों में देश में 10 लाख जजों की जरूरत होगी। आबादी के ताजा आंकड़ों के हिसाब से 135 करोड़ भारतीयों के लिए हमें देश में 65 हजार अधीनस्थ न्यायालयों की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में 15 हजार न्यायालय भी नहीं हैं।
यदि अमेरिका की बात करें तो वहां पर 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं और ब्रिटेन में 55 न्यायालय। यही नहीं, अदालतों के आधारभूत ढांचे की भी बात की जाए तो उसमें भी कई कमियां नजर आती हैं। कंप्यूटरीकरण एवं डिजिटलीकरण के आधुनिक युग में आज भी भारतीय न्यायालय बीते जमाने के ढर्रे पर चल रहे हैं। अदालतों के कंप्यूटरीकरण की रफ्तार बिल्कुल सुस्त पड़ी हुई है। नई अदालतें बनाने का काम भी बहुत धीमी रफ्तार से चल रहा है।
न्याय में देरी के लिए सिर्फ यही कारक उत्तरदायी नहीं हैं। इसके अलावा भारत में अब न्यायिक लड़ाई लड़ना गरीबों के बस की बात रही ही नहीं है। इस बात को सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों ने स्वीकारा है। यदि भारत के न्यायिक क्षेत्र में सुधारवादी कदम उठाते हुए न्याय को आसान और सभी व्यक्तियों की पहुंच वाला बना दिया जाए तो भारत में बड़े स्तर पर अपराध में गिरावट देखने को मिल सकती है।
दरअसल, ग्राम सभा स्तर पर ही यदि आपसी सुलह-समझौते के मामलों का निपटारा किया जाए तो छोटे-मोटे विवादों के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। प्राय: यह देखा गया है कि ग्राम सभा स्तर पर मिले न्याय को दोनों पक्षों ने खुशी-खुशी स्वीकार किया है। वहीं न्यायालय के अलावा न्यायालय के बाहर न्यायिकेत्तर उपाय से प्रकरण सुलझाने की आवश्यकता है।
इसके लिए आवश्यक है कि न्यायालय के अलावा कुछ संस्था, प्राइवेट एजेंसी, एनजीओ को न्यायिक अधिकार प्रदान किए जाएं कि वे ज्यादा से ज्यादा मुकदमें सुलह, समझाइश, समझौते, मध्यस्थता के माध्यम से न्यायालय के बाहर निपटाएं। साथ ही हमारे देश में योग्य वकीलों या वकालत किए विद्वान बेरोजगार युवाओं की कमी नहीं है, फिर जजों की संख्या क्यों नहीं बढ़ाई जा सकती?
लिहाजा मुकदमे में होने वाली देरी के अन्य अनेक कारणों को समझकर उनका समाधान किया जाना चाहिए। चुस्त-दुरुस्त न्याय प्रक्रिया से जनता में न्यायपालिका के प्रति विश्वसनीयता बढ़ेगी और समाज में अपराधों में कमी आएगी, अपराधी में कानून का भय व्याप्त होगा। न्याय प्रणाली को इस प्रकार से दुरुस्त करना होगा ताकि कोई भी व्यक्ति कितना भी ताकतवर क्यों न हो कानून के शिकंजे से बच न सके। राजाओं के समय कोई भी घंटी बजाकर न्याय की गुहार कर लेता था, लेकिन अब न्याय हासिल करना बहुत खर्चीला है। हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट तक गरीबों का पहुंचना नामुमकिन हो गया है। ऐसे में फ्री कानूनी सहायता को बढ़ावा देने की जरूरत है। न्याय प्रणाली में आम भागीदारी बनाने के लिए स्थानीय भाषाओं में भी फैसले देने चाहिए।
दरअसल, देश की अदालतें जादू-टोना घर बनी हुई हैं। भारत जैसे पूर्व गुलाम देशों की यही दुर्दशा है। अंग्रेजों की बनाई न्याय व्यवस्था अभी तक ज्यों की त्यों चल रही है। विख्यात अंग्रेज विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है कि देर से किया गया न्याय अन्याय ही है। ये भारतीय न्यायिक तंत्र की खामी ही है कि आमजन के जीवित रहते न्याय प्रदान करने में वह आज भी सक्षम नहीं है। देश में इसी लचर न्यायिक व्यवस्था के कारण एक ओर अपराधों का ग्राफ व मनोबल बढ़ता जा रहा है, तो वहीं दूसरी ओर न्याय के इंतजार में बैठे लोगों में असंतोष भी घर कर रहा है। समय पर न्याय नहीं मिलने के कारण निर्दोष व्यक्ति को अपराधी नहीं होने पर भी समाज में अपराधी होने का दंश झेलना पड़ रहा है।
वर्तमान में देशवासियों के सामने सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार और अपराध पर अंकुश लगाने की है, परंतु सरकार की सुस्त एवं उदासीन कार्यप्रणाली इस ओर कोई भी कार्य नहीं कर पा रही है। सरकार को हर हाल में भारतीय न्यायिक व्यवस्था में सुधारवादी कदम उठाने होंगे, जिससे आम जनमानस में सुरक्षा और स्वाभिमान की भावना प्रबल हो सके। समझना होगा कि अंतराल के बाद मिले न्याय का कोई अधिक औचित्य भी नहीं रह जाता है। जज कम और केस ज्यादा आखिर गुत्थी सुलझी भी तो कैसे? इसके लिए प्राचीन वैदिक कालीन विधि व न्याय व्यवस्था को पुन: लागू किया जाना चाहिए, जिसे अंग्रेजों ने खत्म कर दिया था।
देवेन्द्रराज सुथार
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।