भाजपा से गठबंधन कर बिहार में सरकार बनाने वाला जनता दल (यू) आंतरिक रूप से दोफाड़ होता नजर आ रहा है। उधेड़बुन में उलझे पार्टी प्रधान शरद यादव ने पहले महागठबंधन टूटने के विरूद्ध नरम सुर में चुप्पी तोड़ते हुए इस घटना को दुखदायी बताया और बाद में उन्होंने प्रादेशिक दौरे के दौरान राज्य के ब्लॉक स्तर के नेताओं की नब्ज को टटोलना शुरू कर दिया है। शरद यादव द्वारा पार्टी को बांट लेने की संभावना दिख रही है।
यह घटनाक्रम किसी भी पार्टी की विचारधारा का मुद्दा नहीं बल्कि नेताओं के आपसी आत्मसम्मान का मामला है। नीतीश कुमार फैसले लेते वक्त चुस्ती से काम करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल को सबक सिखाते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा बरकरार ही नहीं रखा, बल्कि राज्य में यह प्रभाव भी दिखाया कि नीतिश ही जनता दल (यू) हैं। शरद यादव हाथ मलते रह गए,
लेकिन शरद और कांग्रेस की उपेक्षा करते हुए नीतीश कुमार महागठबंधन तोड़ने और भाजपा के साथ सुर जोड़ने में बिना किसी विरोध के सफल हो गए। शरद यादव की हालत दयनीय है। अब वह अपने निजी सम्मान को बहाल करने के लिए अघोषित संघर्ष कर रहे हैं। परन्तु अब समय निकल चुका है। अब नीतीश कुमार के काम करने के तरीके की चर्चा केवल बिहार तक ही सीमित नहीं रही,
बल्कि पूरे देश में यह संदेश जा चुका है कि बिहार को जंगलराज से मुक्ति दिलाने में बड़ा योगदान नीतीश का ही है। इसीलिए नीतीश पार्टी प्रधान न होकर भी प्रधान से अधिक प्रभाव रख रहे हैं। यदि अब शरद यादव खुद को आंकते हैं, तब पार्टी को काफी आघात झेलना पड़ेगा। दो बड़े नेताओं की लड़ाई कांग्र्रेस-भाजपा के लिए लाभदायक होगी। उत्तर प्रदेश के बाद बिहार केंद्रीय राजनीति में एक प्रयोगशाला बन चुका है।
हाल की घटनाओं ने क्षेत्रवाद की गहरी जड़ों को कमजोर किया है। राष्ट्रीय पार्टियां जो कभी विपक्ष की भूमिका को भी तरसती थीं अब सत्ता में भागीदार हो रही हैं। उत्तर प्रदेश में एक पार्टी को बहुमत मिलने की घटना भविष्य में बिहार में भी दोहराई जा सकती है। अत: क्षेत्रीय पार्टियां आंतरिक कलह और नेताओं के आत्मसम्मान के बीच पिसकर रह गई हैं। शरद यादव नीतीश को पछाड़ने की तैयारी में परिस्थितियों की समझ ही नहीं पा रहे, यही उनकी सबसे बड़ी भूल होने जा रही है।
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