पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। कौन किस पार्टी में है, कुछ कहा नहीं जा सकता। हर रोज नेता पार्टी बदल रहे हैं। आज किसी दल में हैं कल किसी और दल में। दलबदल का यह खेल राजनीति की दलदल बन चुका है। पांच साल सरकार में शानोशौकत से मंत्री पद पर रहकर सत्ता की मलाई चखकर चुनाव के ऐन वक्त अचानक से कह देना कि इस पार्टी में तो मेरा दम घुटता है क्योंकि इस पार्टी क सरकार ने दलितों, पिछड़ों व युवाओं के साथ न्याय नहीं किया। मंत्री जी को पूरे पांच साल तो उक्त पार्टी व सरकार में रहकर कभी दलितों व पिछड़ों की उपेक्षा नजर नहीं आई। जब पांच साल बाद दोबारा टिकट मिलने की उम्मीद नहीं लगी या उस पार्टी से जीतने की उम्मीद नहीं लगी तभी दलितों, पिछड़ों और वर्ग विशेष की उपेक्षा याद आने लगती है।
पूरे पांच साल जिस विरोधी पार्टी को पानी पी-पीकर कोसते हैं अचानक फिर वही पार्टी दलितों, पिछड़ों की मसीहा नजर आने लगती है। पंजाब में पिछले दिनों चली उठापटक के बाद अब उत्तर प्रदेश में भी नेताओं की उठापटक जारी है। बसपा से भाजपा में आए स्वामीप्रसाद मोर्य पूरे पांच साल तक योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे, जो अब मंत्री पद से इस्तीफा दे चुके हैं, यूपी के कैबिनेट मंत्री दारा सिंह चौहान भी मंत्री पद व भाजपा से इस्तीफा देकर सपा का दामन थाम चुके हैं। सिरसागंज से सपा के विधायक हरिओम यादव और बेहट से कांग्रेस के विधायक नरेश सैनी भाजपा में शामिल हो गए हैं।
स्वामी प्रसाद मोर्य 14 जनवरी को धमाका करेंगे कि वो किस पार्टी में जाएंगे। आया राम-गया राम की राजनीति जो कभी हरियाणा में ही मशहूर थी, अब देशव्यापी हो गई है। ऐन चुनाव के वक्त अपनी विचारधारा को बदलने वाले नेताओं के झांसे में क्या जनता आएगी यह तो चुनावों के बाद ही पता चलेगा। लेकिन यह जाहिर है कि ऐसे नेताओं की कोई विचारधरा होती ही नहीं। ऐसे नेताओं की ‘सत्ताप्राप्ति’ ही एकमात्र विचारधारा होती है। और इस विचारधारा के बलबूते वे कितना सफल होते हैं इसका पता चुनाव परिणामों के बाद ही लगेगा। लेकिन सत्ता प्राप्ति के लिए विचारधारा बदलने में अब कोई देर नहीं लगती।
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