बिहार विधान सभा चुनावों की घोषणा के बाद राज्य में राजनीतिक गतिविधियां नए गठबंधन व पुराने गठबंधन के ईद-गिर्द घूम रही हैं। मुख्य मुकाबला राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में महागठबंधन और सत्तापक्ष जनता दल (यू) भाजपा के बीच है, लेकिन बिहार के चुनावों को देखकर लगता ही नहीं कि यहां जनता का कोई मुद्दा भी है। महांगठबंधन अपने पुराने सहयोगी दलों की नब्ज टटोलकर गठबंधन को बरकरार रखने का प्रयास कर रहा है। राष्ट्रीय लोक जनता पार्टी (आरएलएसपी) ने सीटों के बंटवारे को लेकर असंतुष्टि व्यक्त कर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन कर लिया है। उधर भाजपा लोक जन शक्ति पार्टी को अपना सहयोगी बनाने का प्रयास कर रही है। लोक जन शक्ति ने 27 सीटों की मांग रखी है। अब सीटों के बंटवारे का मामला इस हद तक पहुंच गया है कि विधान सभा चुनावों के साथ ही राज्य सभा की सीटों की भी शर्तें व मांग रखी जा रही है। भले ही राजनीतिक दल गठबंधन का आधार सिद्धांतों को बता रहे हैं लेकिन वास्तव में राजनीति महज सीटों का समझौता बनकर रह गई है। शायद बिहार में सीटों का बंटवारा ही बड़ी समस्या है।
चिंताजनक बात यह है कि विगत वर्ष ‘चमकी बुखार’ ने पूरे बिहार को हिलाकर रख दिया था, इस बुखार से 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई थी। अब फिर नए मामले आने की चर्चा हो रही है। विडंबना की बात यह है कि प्रदेश में बड़े स्तर पर डॉक्टरों के पद खाली पड़ें हैं, बुखार से बच्चों की मौतें होना, बाढ़ से बेहाल, लॉकडाउन के बाद बेरोजगारी व अन्य मूलभूत सुविधाओं का टोटा होने जैसी समस्याएं चुनावी सभाओं से गायब हैं। राज्य का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज पटना के मरीजों के वार्ड बाढ़ में तालाब बन रहे थे, ऐसी परिस्थितियों में भी राजनीतिक पार्टियों का मुद्दों पर चुप रहना नेताओं की जवाबदेही व उनके वादों पर टिके रहने पर सवाल उठाता है। चुनावी घोषणा पत्र महज एक परंपरा बन गई है। एक भी पार्टी ने अभी तक यह घोषणा नहीं की कि घोषणा-पत्र कब पेश किया जाएगा। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब चुनाव का दिन नजदीक आते ही धड़ाधड़ वायदों से भरे घोषणा-पत्र जारी कर खानापूर्ति की जाएगी। चुनाव का तात्पर्य जीत प्राप्त करना और सत्ता की कुर्सियों पर बैठना नहीं होता, बल्कि जन समस्याओं के प्रति अपनी विचारधारा, दृष्टिकोण पेश कर जनता से किए गए वादों को निभाना होता है।
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