क्या यह केवल बर्ड फ्लू है?

देश में रोगियों की संख्या के अनुरूप चिकित्सा सुविधाएं नहंी हैं। एक आईसीयू बिस्तर पर कई बार दो-तीन रोगी देखने को मिल जाते हैं। इसके अलावा अस्पतालों में स्वच्छता का अभाव है। कई बार नवजात शिशुओं के पास आपको चूहे और आवारा कुत्ते घूमते मिल जाएंगे किंतु अब इस पर लोग हैरान नहंी होते क्योंकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी अस्पतालों में यह आम बात बन गयी है।

इसके अलावा चिकित्सा उदासीनता, संसाधनों की कमी, चिकित्सा कर्मियों की कमी, डॉक्टरों की कमी और जो उपकरण उपलब्ध हैं उनमें से 70 प्रतिशत उपकरणों में खराबी, मेडिकल उपकरणों की कमी आदि अनेक समस्याएं स्वास्थ्य क्षेत्र में हैं। गता है भगवान नाराज हैं। जहां एक ओर सारा देश कोरोना महामारी के टीके की प्रतीक्षा कर रहा है तो दूसरी ओर बर्ड फ्लू का प्रकोप फैलने लगा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल, केरल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, छत्तीसगढ, जम्मू कश्मीर और दिल्ली में बर्ड फ्लू के मामले सामने आए हैं

और इन राज्यों में मुर्गी, कौवे तथा प्रवासी पक्षियों की मौत हो रही है। राज्यों को सतर्क कर दिया गया है। पशु पालन विभाग के एक अधिकारी के अनुसार स्थिति भयावह है। किंतु क्या यह पर्याप्त है? क्या इससे सरकार द्वारा विलंब से कदम उठाने और कुपबंधन को नजरंदाज किया जा सकता है? पशु पालन राज्य मंत्री बलियान के अनुसार यह बीमारी केवल कुछ राज्यों में स्थानीय स्तर पर फैली है। यह बडा खतरा नहीं है। यह कोई नई बात नहीं है। 2015 से हर वर्ष ऐसा हो रहा है। क्या वास्तव में ऐसा है? आप किसे बेवकूफ बना रहे हैं? शायद उन्हें बर्ड फ्लू कहां से फैला, इसकी जानकारी नहंी है।

महाराष्ट्र में 2006 में बर्ड फ्लू के फैलने की खबरें आयी थी। ओडिशा, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में पालतू और वन्य पक्षियों में इसके प्रकोप की खबरें आती रहती हैं। 2006 से 2018 के बीच देश में बर्ड फ्लू संक्रमण के 225 केन्द्र रहे हैं और इस दौरान 83.49 लाख पक्षियो को मारना पडा। न केवल इस संक्रमण के प्रति अपितु अन्य बीमारियों के प्रति भी सरकार का ढुलमुल रवैया रहा है और यह बताता है

कि हमारे शासक इनके बारे में गंभीर नहीं रहे हैं। हमारे देश में मानव जीवन के प्रति राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता देखने को मिलती है। उनके लिए नागरिक केवल एक संख्या है। यह तथ्य इससे स्पष्ट हो जाता है कि देश में गरीब लोग विशेषकर बच्चे ऐसी बीमारियों के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं जो पूर्णतया उपचार योग्य हैं। देश में लगभग 6 लाख डाक्टरों तथा 20 लाख नर्सों की कमी है। ये आंकडे सेन्टर फोर डिसीज डायनेमिक्स, इकानोमिक्स एंड पोलिसीज के हैं।

शहरों मे जो लोग स्वयं को डाक्टर कहते हैं उनमें से केवल 58 प्रतिशत के पास और ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 19 प्रतिशत लोगों के पास चिकित्सा डिग्री है और अधिकतर 10वीं, 12वीं पास हैं। यही नहीं देश में 1,00189 लोगों पर केवल एक एलोपैथिक डॉक्टर है। 2036 व्यक्तियों पर एक बिस्तर और 90343 लोगों पर एक सरकारी अस्पताल है। देश मे 130 करोड लोगों के लिए केवल 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं। देश में प्रतिदिन कुपोषण के कारण 3000 बच्चों की मौत होती है। हमारे देश मे 14.9 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषित है और स्वास्थ्य देखभाल सुविधाआें की कमी के कारण प्रतिवर्ष यहां लगभग 10 लाख लोगों की मौत हो जाती है।

किंतु यदि राज्य सरकार डाक्टरों की शिक्षा के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध कराए तो अधिक डॉक्टर बन सकते हैं। सरकार ऐसा क्यों नहीं करती और इसके लिए मतदाता उन्हें दंडित क्यों नहीं करते? इसका कारण यह है कि शायद हमारे नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए स्वास्थ्य कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि उन्हें जाति और धर्म के आधार पर वोट मिल जाते हैं इसलिए वे धनराशि का उपयोग मतदाताओं को तुष्ट करने और विद्यमान पहचान आधारित धुव्रीकरण पर खर्च कर देते हैं और इस तरह वे स्वास्थ्य नीति की उपेक्षा करते हैं।

यदि हमारे नेतागणों को यह भय होता कि स्वास्थ्य क्षेत्र का विकास न करने के कारण उन्हें दंडित किया जाएगा तो वे इस क्षेत्र में सुधार के लिए कदम उठाते। हमारे देश में आर्थिक पिछड़ेपन का संबंध जाति प्रथा से भी है। सामाजिक स्तर पर सबसे निचले क्रम मे आने वाले लोगों को खराब स्वास्थ्य सेवा का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है। गरीब घरों, अनुसूचिति जाति, अनुसूचित जनजाति के परिवारों में बाल मृत्यु दर सबसे अधिक है जबकि उच्च जातियों और धनी वर्ग के लोगों में कम है। भारत की स्वास्थ्य प्रणाली जर्जर हो चुकी है। इसके कारण यहां बीमारियों का खतरा बना रहता है।

सरकार को इस बात को समझना होगा कि सामाजिक क्षेत्र में सुधार के बिना आर्थिक सुधार अपने आप में अभिशाप बन सकते हैं क्योंकि यदि सामाजिक क्षेत्र कमजोर होगा तो पूरी प्रणाली धराशायी हो सकती है। यह समझना कठिन नहंी है कि अशिक्षित कामगार अधिक उत्पादक नहीं होेते हैं। कुपोषण और रोगों के कारण उच्च बाल मृत्यु दर है। यह सच है कि भाजपा सरकार ने आयुष्मान भारत के अंतर्गत एक अच्छी शुरूआत की है किंतु प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख के लिए उसने भी ठोस कदम नहीं उठाए हैं हालांकि देश में डेढ लाख स्वास्थ्य केन्द्र खोले जा रहे हैं।

किंतु प्रत्येक केन्द्र के लिए एक लाख रूपए से कम का बजट आवंटन करने के कारण केवल विद्यमान प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में मामूली सुधार किया जा सकता है। कुछ में नि:शुल्क दवाओं की व्यवस्था की गयी है किंतु यह सफल नहीं हुआ है। ये केन्द्र हमेशा खुले भी नहीं रहते हैं। उनमें अक्सर डॉक्टर और नर्सें गायब रहते हैं और यहां पर स्वास्थ्य सुविधाएं देने वालों में चिकित्सा योग्यता नहीं होती है।

तथापि कुछ राज्यों ने स्वास्थ्य क्षेत्रों में अच्छा कदम उठाया है। उत्तर प्रदेश और केरल इसके उदाहरण हैं। केरल ने स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं पर ध्यान दिया जबकि उत्तर प्रदेश में नहीं दिया गया। इसलिए देश में बढती जनसंख्या और स्थानीय वातावरण पर इसके प्रभाव शहरों में झुग्गी-झोंपडी बस्तियों का विस्तार, पर्यावरण प्रदूषण आदि दशाएं बीमारियों को फैलने में मदद करती हैं। इसके अलावा औषधियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित होना और बदलती जीवन शैली भी रोगों के प्रसार में यागदान दे रहे हैं।

हमारे देश को रोगों के निवारण और प्रसार को रोकने के लिए वैज्ञानिक प्रगति के लाभों का उपयोग करना चाहिए और इस क्षेत्र में उदासीनता को हावी होने देना उचित नहंी होगा। लोक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए हमेशा सजग रहना ही शासन करना है। सरकार को अनौपचारिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं उपलब्ध कराने वालों को मान्यता देनी होगी और उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, एमबीबीएस डाक्टरों, प्रशिक्षित नर्सो की संख्या बढानी होगी।

उच्च स्वास्थ्य सेवाएं उपलध्ब कराने के लिए इंटरमीडिएट डिग्री की व्यवस्था करनी होगी। चिकित्साकर्मियों के लिए सेलफोन आधारित चेकलिस्ट विकसित करनी होगी। कुल मिलाकर हमें स्वास्थ्य के बारे में बुनियादी बाते सीखनी होंगी। बीमारियों के प्रसार पर रोक लगाने के प्रयासों के बिना हम बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहंी करा सकते हैं। सरकार को प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ रखने के लिए गर्भ से कब्र तक की नीति का अनुसरण करना होगा।