क्या महंगाई कम भी होती है…

Is inflation even less ...

एक बार फिर डीजल और पेट्रोल के दाम में वृद्धि हुई है। वहीं सब्जियों और अन्य चीजों के दामों में भी वृद्धि देखी जा रही है। लेकिन क्या एक बार महंगाई बढ़ जाने के बाद कम भी होती है। निश्चिततौर पर यह कई चीजों पर निर्भर करता है। दरअसल, प्रत्येक देश की सरकार का एक केन्द्रीय बैंक होता है जो कि उस देश की सर्वोच्च वित्तीय संस्था के रुप में काम करती है। भारतीय रिजर्व बैंक हमारे देश का केन्द्रीय बैंक है जिसकी स्थापना 1 अप्रैल 1935 ई. को हुई थी। देश में वाणिज्यिक बैंक तथा आरबीआई के मोडस ओपेरंडी में एक मूलभूत अंतर होता है। जहां सभी कमर्शियल बैंक्स अपने प्रॉफिट को मैक्सिमम करने के उद्देश्य से अपने कस्टमर्स के साथ डीलिंग करती हैं वहीं भारतीय रिजर्व बैंक देश के विकास तथा सामाजिक कल्याण के लिए कार्य करती है।

आरबीआई का मुख्य कार्य देश के विकास के लिए नीति-निर्माण का होता है ताकि सामाजिक कल्याण के साथ-साथ राष्ट्र का विकास हो पाए। भारतीय रिजर्व बैंक का देश के विकास के लिए नीतियों का बनाना और समय-समय पर उनमें परिवर्तन करना ही उसकी मौद्रिक नीति कहलाती है। दरअसल ब्याज दर की नीति तथा क्रेडिट, साख की नीति ही केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति, मोनेटरी पालिसी के मुख्य टूल्स होते हैं। देश की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय बैंक अपनी नीतियों में कई प्रकार के परिवर्तन करती है जिनमें रेपो रेट एक महत्वपूर्ण टूल के रुप में काम करता है। दरअसल रेपो रेट ब्याज की उस दर को कहते हैं जिस दर पर वह कमर्शियल बैंक्स को उधार देती है। इसे बैंक रेट भी कहते है। इसे कभी-कभी डिस्काउंट रेट या कटौती दर भी कहते है।

रेपो रेट में परिवर्तन के आधार पर देश में मुद्रा की तरलता पर काफी फर्क पड़ता है। जब केन्द्रीय बैंक को यह लगता है कि देश में महंगाई काफी बढ़ रही है और मुद्रास्फिति की दर में वृद्धि का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है तो वह रेपो रेट में सुधार करती है। जब आरबीआई रेपो रेट की दर में वृद्धि कर देती है तो उधार लेना महंगा हो जाता है लिहाजा कमर्शियल बैंक भी अपने कस्टमर्स को महंगे ब्याज दर पर लेंड करती है। ब्याज की दर तथा उधार लेने की मात्रा के मध्य नेगेटिव संबंध होता है। उंचे ब्याज दर पर उधार कम लिया जाता है और निम्न ब्याज दर पर अधिक उधार लिया जाता है।

अर्थशास्त्र का सिद्धांत यह कहता है कि खुले बाजार में वस्तुओं की कीमतें उनकी मांग तथा पूर्ति पर निर्धारित होता है इसीलिए जब मांग में कमी हो जाती है तो बाजार में उस वस्तु या सेवा की कीमतें क्रमश: कम हो जाती है। इसके विपरीत जब बाजार में मंदी का दौर होता है तब आरबीआई अपने रेपो रेट को कम कर देती है। रेपो रेट के कम होने के साथ ही उधार लेने की प्रक्रिया तेज हो जाती है। अधिक मात्रा में उधार का अर्थ लोगों के पास अधिक तरल आय या मुद्रा का होना है। अधिक मुद्रा के फलस्वरुप बाजार में वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ जाती है और मांग में वृद्धि के नतीजे के रुप में कीमतों में सुधार होने लगता है और अंतत: बाजार चल पड़ता है। बहरहाल कीमतें कम भी होती हैं लेकिन वह इतना कम होती हैं कि उसका कोई असर बाद में दिखता नहीं है। जिससे बढ़ा हुआ दाम ही एकबारगी बना रहता है।

– डेस्क

 

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