बचपन को मत बनाएं इंटरनेट का गुलाम

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देश में इंटरनेट के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल में बचपन खोता जा रहा है जिसकी परवाह न सरकार को है और न ही समाज इससे चिंतित है। ऐसा लगता है जैसे गैर जरुरी मुद्दे हम पर हावी होते जा रहे है और वास्तविक समस्याओं से हम अपना मुंह मोड़ रहे है। यदि यह यूँ ही चलता रहा तो हम बचपन को बर्बादी की कगार पर पहुंचा देंगे। देश के साथ यह एक बड़ी नाइंसाफी होगी जिसकी कल्पना भी हमें नहीं है। जब से इंटरनेट हमारे जीवन में आया है तबसे बच्चे से बुजुर्ग तक आभासी दुनियां में खो गए हैं। हम यहाँ बचपन की बात करना चाहते हैं। देखा जाता है पांच साल का बच्चा भी आँख खोलते ही मोबाइल पर लपकता है। पहले बड़े इसे अपने काम के लिए करते थे। अब बच्चे भी इंटरनेट के शौकीन होते जा रहे हैं।

बाजार ने उनके लिए भी इंटरनेट पर इतना कुछ दे दिया है कि वह पढ़ने के अलावा बहुत कुछ इंटरनेट पर करते रहे हैं। आजकल के बच्चे इंटरनेट लवर हो गए हैं। इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल डाला है। बच्चे और युवा एक पल भी स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते। इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे इंटरनेट एडिक्शन डिस्आॅर्डर कहा गया है। पिछले कुछ अरसे से रिलायंस जियो जैसी मोबाइल कंपनियों ने डेटा के क्षेत्र में जिस तरह की जंग छेड़ी है,

उसने इस समस्या को और विकराल कर दिया है। लगभग सभी कंपनियां बेहद कम पैसों में असीमित डेटा आॅफर कर रही हैं, जिसका खासकर बच्चे व युवा खुलकर लुत्फ उठा रहे हैं। चिंता की बात यह है कि इसका इस्तेमाल वे अपने लिए रचनात्मक कार्यों में न के बराबर कर रहे हैं। सारा दिन फेसबुक, ट्विटर, स्काइप और सबसे गंभीर मुद्दा पॉर्नोग्राफिक साइटों को ब्राउज करने में लगे रहते हैं। खेलकूद अब कागजों तक सीमित हो कर रह गया है। मेट्रो सिटी में खेल के मैदान वैसे भी देखने को नहीं मिल रहे हंै। रही सही कसर इंटरनेट ने पूरी करदी है। खेलने कूदने के दिनों में बच्चों के हाथ में मोबाइल लग गया है जिसके प्रभाव से अन्य गतिविधियों पर विराम सा लग गया है। अभिभावक बच्चों से पीछा छुड़ाने के लिए उनके हाथ में मोबाइल थमा देते है जिसके कारण बच्चे चिड़चिड़े हो गए है और वे किसी की बात सुनना पसंद नहीं करते।

घर के रोजमर्रा के काम से भी जी चुराने लगते हैं। मांगलिक और सामाजिक कार्यों में जाना उन्हें पसंद नहीं है। घरवालों के दवाब से जाते भी हंै तो मोबाइल से चिपके रहते हंै। यहाँ तक की वहां भी एकाकी रहना चाहते है। सच में इंटरनेट ने बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध कर दिया है।
एक सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है की कच्ची उम्र के बच्चे सही और गलत में फर्क नहीं कर पाते। वे पॉर्नोग्राफी के कुचक्र में आसानी से फंस जाते हैं। पढ़ने-लिखने व अन्य रचनात्मक कार्यो में अपना समय देने के बदले वे अश्लीलता के दलदल में फंस रहे हैं और अपना कीमती वक्त मोबाइल पर खर्च कर रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है बहुत से बच्चे अपना अधिकांश समय आॅनलाइन गेम खेलने और इंटरनेट ब्राउज करने में बिताते हैं। सड़क पर चलते समय भी मोबाइल पर गेम खेलने में व्यस्त रहते है। ऐसे बच्चे कई बार अनचाही दुर्घटना का शिकार भी हो जाते है।

हाल ही फ्रांस की संसद ने कानून बनाकर देश के प्राथमिक और जूनियर हायर सेकंडरी स्कूलों में बच्चों द्वारा मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। यह कानून सितंबर 2018 से लागू हो गया है। बचपन बचाने के फ्रांस जैसे विकसित देश के इस कदम की भारत में भी अनुकूल प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। हमारे बच्चे भी इंटरनेट के गुलाम बनते जा रहे हैं। खराब साइटों के कारण बच्चों के बिगड़ने का डर लगातार बढ़ता जा रहा है। कानून बनने से इस डिजिटल लत से छुटकारा मिलेगा। महानगरों में यह मोबाइल की यह बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि कई युवाओं को तो स्वास्थ्य सुधार केंद्र में भर्ती कराना पड़ रहा है। समय रहते यदि इस पर काबू नहीं पाया गया, तो समाज में एक नई विकृति पैदा हो सकती है। इंटरनेट एडिक्शन डिस्आॅर्डर के लक्षण हर शहर के बच्चो और युवाओं में उभरने लगे हैं। बचपन को बचाने का एकमात्र उपाय यही है की उनके हाथों में मोबाइल न देवें। इसके लिए यदि सख्ती भी करनी पड़े तो करें।

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