पाकिस्तान को आतंकवादी फंडिंग के कारण अंतर्राष्ट्रीय मंच पर झटका लगा है। आतंकी संगठनों को फंड उपलब्ध कराने वाले देशों पर नजर रखने वाली संस्था फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने पाकिस्तान को “ग्रे लिस्ट” में डाल दिया है और जून में होने वाली बैठक में इसकी आधिकारिक पुष्टि हो जाएगी। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब पड़ोसी देश पाकिस्तान पर कड़ी निगाह रखेगा। इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान के सदाबहार मित्र चीन ने भी आतंकी फंडिंग के मामले में पाकिस्तान का अंततोगत्वा समर्थन नहीं किया। जबकि चीन का सीपीईसी अर्थात चीन पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर के आधारभूत संरचना प्रोजेक्ट में करीब 60 बिलियन डॉलर का निवेश पाकिस्तान में है। ऐसे में चीन के इस निर्णय के विशेष महत्व को समझा जा सकता है।
एफएटीएफ के पेरिस बैठक में यह निर्णय लगभग सर्वसहमति से लिया गया। पाकिस्तान को मनी लॉंन्ड्रिग के मामले में वर्ष 2012 से 2015 तक के लिए वॉच लिस्ट में डाल दिया गया था। लेकिन इस बार यह कार्यवाई आतंकी संगठनों को धन मुहैया कराने के मामले में की गई है, जो पूर्व से काफी कड़ी है। एफएटीएफ एक अंतरसरकारी संस्था है, जिसकी स्थापना वर्ष 1989 में की गई थी। इसका मुख्य उदेश्य मनी लॉंन्ड्रिग (धन शोधन), आतंकियों को धन मुहैया कराना और अंतर्राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य खतरों के प्रति ठोस कार्यवाई करना है। संगठन द्वारा लिया गया फैसला सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी होता है।
एफएटीएफ के पेरिस बैठक में इसके 37 सदस्यों में केवल तुर्की को छोड़कर इसके सभी 36 सदस्यों का समर्थन मिला है। ज्ञात हो एफएटीएफ में किसी भी नए कदम को रोकने के लिए कम से कम 3 सदस्यों का समर्थन होना चाहिए।एफएटीएफ के पूर्ण सत्र की कार्यवाई पूरी निजी होती है। पाकिस्तान को वॉच लिस्ट में वापस भेजने की अमेरिकी और ब्रिटिश प्रस्ताव पर सऊदी अरब, तुर्की, रूस और चीन ने असहमति जताई। इस पर वाशिंगटन ने अभूतपूर्व रूप से पाकिस्तान पर दूसरा प्रस्ताव रखा। ट्रंप प्रशासन ने शुरू से इस मुद्दे पर दबाव डालना प्रारंभ कर दिया।
अमेरिका ने इस प्रस्ताव को पारित कराने के लिए सर्वप्रथम गल्फ कॉपरेशन कांउसिल को विरोध छोड़ने के लिए तैयार कर लिया। सऊदी अरब द्वारा लगातार पाकिस्तान को समर्थन दिया जा रहा था। हाल ही में पाकिस्तान ने सऊदी अरब को अपना सैन्य सहयोग प्रदान किया था। ऐसे में सऊदी अरब तथा पाकिस्तान के रिश्ते को समझा जा सकता है। अमेरिका ने सऊदी अरब प्रतिनिधियों से बातचीत करते हुए उन्हें याद दिलाया कि दोनों देशों की व्यापक साझेदारी है। ज्ञात हो सऊदी अरब एफएटीएफ का पूर्ण सदस्य नहीं है। अमेरिका ने सऊदी अरब को फुल मेंबरशिप का लालच दिया। फलत: सऊदी अरब ने भी पाकिस्तान का साथ छोड़ दिया। इस संपूर्ण प्रकरण में रूस भी पाकिस्तान के तरफ झुका हुआ था।
परंतु भारत और रूस के ऐतिहासिक मजबूत रिश्तों के आधार पर भारत ने रूस को अपने प्रभाव में ले लिया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि आखिर पाकिस्तान का समर्थन करने से चीन कैसे पीछे हटा? दरअसल, रूस और सऊदी अरब के पाकिस्तान से किनारा करने के बाद चीन पर भी पीछे हटने के दबाव में लगातार वृद्धि हो रही थी। पाकिस्तान एवं चीन के अति घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए, इस मामले में चीन का समर्थन प्राप्त करना काफी कठिन था। चीन एफएटीएफ में शीर्ष स्थान प्राप्त करने के लिए पैरवी कर रहा था और इसके लिए उसे प्रायोजक देशों के समर्थन की आवश्यकता होती।
पाकिस्तान पर चीन की तटस्थता के बदले भारत और अमेरिका ने चीन को समर्थन देने की बात कही। जब अमेरिका सऊदी अरब और तुर्की से बात कर रहा था, तब भारत चीनी प्रतिनिधिमंडल से मोर्चा संभाल रहा था। अंतत:भारतीय प्रतिनिधिमंडल जो नई दिल्ली से निरंतर संपर्क में था, उसने अमेरिका के साथ मिलकर चीनी टीम के साथ समझौता किया जो कि भविष्य में बीजिंग के लिए एफएटीएफ में बड़ी भूमिका निभाने के समर्थन से संबंधित है। इसके अतिरिक्त चीन अपने इस निर्णय के द्वारा पाकिस्तानी नीति निर्माताओं पर आतंकवाद को लेकर कुछ दबाव भी डालना चाह रहा है।
चीन का इस समय पाकिस्तान में भारी निवेश है और कई बार चीन को भी आतंकवादियों के कारण सीपीईसी प्रोजेक्ट में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त चीन वैश्विक तौर पर भी एक जिम्मेदार महाशक्ति के रुप में संकेत देने का प्रयास कर रहा है कि वह भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में विश्व समुदाय के साथ है। ज्ञात हो चीन पूर्व में पाकिस्तानी आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर को बार-बार वीटो के प्रयोग कर बचाने के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम हो चुका है। सितंबर 2017 में चीन में संपन्न ब्रिक्स बैठक में भारतीय प्रयास से ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने पाकिस्तान केंद्रित आतंकवादी संगठनों को वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा बताया था। ऐसे में ब्रिक्स सम्मेलन में चीन द्वारा किए दावों को पूरा करने का अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी चीन पर था। एक सप्ताह पहले भी चीन ने सीपीईसी के लिए बलूच नेताओं से सीधी वार्ता कर पाकिस्तान को बलूचिस्तान में भी मानवाधिकार हनन रोकने व बलूचिस्तान में शांति स्थापित करने का संकेत दिया था।
इस तरह अपने सदाबहार मित्र चीन का सहयोग नहीं मिलने से पाकिस्तान को भी स्पष्ट संदेश पहुँच गया कि अगर वह आतंकवाद के मामले पर निष्क्रिय रवैया अपनाता है, तो न केवल पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय विरोध का सामना करना पड़ेगा, अपितु चीन के भी विरोध का सामना करना पड़ेगा। साथ ही चीन पाकिस्तान का विरोध कर यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर चीन के आर्थिक एवं सुरक्षा हितों का पाकिस्तान ध्यान नहीं रखेगा, तो चीन का पूर्ण समर्थन भी समाप्त हो सकता है। भारत के आक्रामक कूटनीतिक पहल के लिए इससे बेहतर वक्त नहीं हो सकता था, क्योंकि ट्रंप की अगुवाई वाला अमेरिका आतंक फैलाने को लेकर पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराने की लगातार मांग करता रहा है। हालांकि भारत को सावधानी से इस अवसर का फायदा उठाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि चीन और सऊदी अरब जून के बाद अपने मौजूद रूख में कोई बदलाव न करें।
अगर जून तक पाकिस्तान ने टेरर फंडिंग को खत्म करने के लिए विस्तृत कार्ययोजना नहीं तैयार की तो उसका नाम ब्लैक लिस्ट देशों में शुमार कर लिया जाएगा। टास्क फोर्स के इस कदम के बाद पाकिस्तान के सामने अन्य एजेंसियों की ओर से भी डाउनग्रेड किए जाने का खतरा मंडरा रहा है। स्वयं पाकिस्तानी विशेषज्ञ भी स्वीकार कर रहे हैं कि आईएमएफ, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक समेत मूडीज, स्टैंडर्ड एंड पूअर्स और फिच जैसी एजेंसियाँ पाकिस्तान को डाउनग्रेड कर सकती है। ऐसा होने पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और बैंकों के लिए पाकिस्तान में कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा। इस्लामाबाद पर 300 अरब डॉलर का संप्रभुता कर्ज है, ऐसे में देनदारी चुकता नहीं करने पर स्थिति और भी विकट होगी। ऐसे स्थिति में पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में गिरावट एक ऐसा चक्र शुरू हो सकता है, जिसे पुन: मुक्त होना पाकिस्तान के लिए मुश्किल हो जाएगा।
राहुल लाल