प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बीच वर्चुअल बातचीत का सबसे बड़ा संदेश यही है कि दोनों देश आपसी रिश्तों की अहमियत समझते हैं। वे भविष्य में इसे और मजबूत करना चाहते हैं। अगर कोई गांठ आई भी तो दोनों उसे सुलझा लेंगे। हाल में यूक्रेन को लेकर अमेरिका की ओर से कुछ ऐसे बयान आए थे, जिनसे संबंधों में तल्खी का संकेत मिला था। पहले तो बाइडन ने यह कहा कि यूक्रेन मामले में भारत का रुख थोड़ा हिला हुआ है। इसके बाद अमेरिका के डेप्युटी एनएसए दलीप सिंह भारत आए। उन्होंने कहा कि रूस को लेकर भारत का जो रुख है, वह उसे महंगा पड़ सकता है। खासतौर पर भारत के रूस से तेल-गैस सौदे को लेकर अमेरिका की ओर से दबाव था। आखिर, इस मामले में भारत को यह कहना पड़ा कि यूरोपीय देश अभी रूस से कहीं ज्यादा तेल-गैस खरीद रहे हैं।
रियायती दर पर भारत को तेल बेचने के रूसी प्रस्ताव को लेकर एकाधिक अमेरिकी बयानों से भ्रम की स्थिति बन गई थी। पश्चिमी मीडिया का एक हिस्सा इन बयानों को अमेरिकी नाखुशी के रूप में पेश करने में जुटा था, लेकिन विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत-अमेरिकी 2+2 वार्ता के बाद आयोजित संवाददाता सम्मेलन में स्पष्ट कर दिया कि रूस से पेट्रो उत्पादों की खरीद के संदर्भ में भारत को लेकर अमेरिका को चिंतित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यूरोप जितना एक दोपहर में उससे तेल खरीदता है, भारत उतना महीने भर में भी आयात नहीं करता। मोदी ने अपनी तरफ से बूचा हिंसा का मुद्दा उठाया। उन्होंने भारत का यह रुख भी दोहराया कि बूचा हिंसा की निष्पक्ष जांच करवाई जाए। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया की बड़ी शक्तियां अब खुलकर आमने-सामने आ चुकी हैं और अमेरिका चाहता है कि रूस पर आर्थिक दबाव बनाए रखा जाए।
इसलिए मॉस्को से पेट्रो उत्पादों के अलावा हथियार खरीद के नए समझौतों को लेकर भी उसने अपने तेवर कड़े कर लिए हैं। लेकिन वाशिंगटन को यह समझने की जरूरत है कि रूस के साथ भारत के दशकों पुराने सामरिक संबंध हैं और वह अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख से भी वाशिंगटन को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भारत वैश्विक शांति और अपने हितों के बीच संतुलन साधना जानता है। निस्संदेह, भारत को भी अमेरिका के साथ और सहयोग की आवश्यकता है, पर वाशिंगटन को समझना होगा कि इकतरफा दबाव का दौर अब खत्म हो चुका है।
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