चीन से आगे जाने के और भी रास्ते हैं भारत के पास

China and India

पिछले दिनों चीन की राजधानी बीजिंग में ‘एक बेल्ट एक रोड’ पर सम्मेलन हुआ, जिसमें दुनिया के 60 से अधिक देशों ने शिरकत की, जबकि भारत और भूटान ने दूरी बनाए रखा। यह परियोजना पूर्वी एशिया से शुरू होकर संपूर्ण एशिया और अफ्रीका से गुजरते हुए यूरोप तक जाएगी। यह परियोजना समुद्र और भूमि मार्ग का एक विशाल जाल है।

दरअसल सिल्क रोड आर्थिक पट्टी और सामुद्रिक रेशम मार्ग को जोड़ने के चीन द्वारा प्रस्तावित यह परियोजना एशिया को दिया जाने वाला कोई उपहार नहीं, बल्कि अपने औपनिवेशिक प्रभाव क्षेत्र का विस्तार है। चीन पाकिस्तान, बंगलादेश समेत भारत को घेरते हुए केवल दक्षिण एशिया में ही नहीं, बल्कि विश्व में भी महाशक्ति की धमक पेश करना चाहता है।

55 फीसद जीएनपी, 70 फीसद जनसंख्या और 75 ज्ञात ऊर्जा भंडार को समेटने वाली इस परियोजना को उत्पादन-केन्दों से जोड़ने की बात चीन कह रहा है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। दरअसल निर्यात से चीन की आमदनी पहले ही 300 ट्रिलियन डॉलर है जिसे उसने अमेरिका और यूरोप के बैंकों में जमा कर रखा है,

लेकिन उससे चीन को ब्याज नहीं मिलता और न ही चीन उसे एक साथ अपने देश में खपा सकता है,क्योंकि इससे अवस्फीति (डेफ्लेशन) बढ़ने का खतरा है। लिहाजा चीन उस धन का उपयोग इस चालाकी से करना चाहता है, ताकि भारत और पाक जैसे देश उसके सामने घुटने टेक दें। खास कर दक्षिण एशिया में भारत की बढ़त को ओवरटेक करके बड़े भाई की भूमिका में आना चाहता है।

चीन की मानें तो यह गलियारा एक बहुआयामी बुनियादी ढांचा है, जिसमें कई रेलवे लाइनें, राजमार्ग और बंदरगाहों का निर्माण होगा, जो विकासशील देशों के लिए एक वरदान साबित होगा। लेकिन, भारत ने चीन की बदनीयती को भांपते हुए इस परियोजना में शामिल न होकर सूझबूझ का परिचय दिया है, लिहाजा भारत के अलग-थलग पड़ने और आर्थिक रूप से कमजोर होने की बातें गलत हैं। ऐसा करके भारत ने अपने हक में अच्छा किया है। इसके कई पहलू हैं।

पहला, अलग होकर भारत ने अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा की हैं, क्योंकि चीन इस परियोजना के बहाने अरूणाचल प्रदेश और कश्मीर-क्षेत्रों में अनावश्यक मुश्किलें पैदा करता। दूसरा, प्रस्तावित बंगलादेश, चीन, भारत और म्यांमार (बीसीआईएम) गलियारा के लिए राजी होने का अर्थ होता भारत के पूर्वोत्तर इलाके को चीनी सामानों से पाट देना, इससे चीन के आर्थिक एजेंडे को बल मिलता और हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर होती।

तीसरा, चीन हमेशा से ही परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के शामिल होने का और पाक आतंकी मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाने के भारत की कोशिशों का विरोध करता रहा है। लिहाजा, यदि भारत ओबीओआर में शामिल होने की हामी भर देता तो इसका अर्थ होता चीन के इन नापाक मंसूबों को सही ठहराना।

फिर चीन के इस प्रकार के रवैये से एक विश्वसनीय पड़ोसी वाली उम्मीद भी धूमिल होती रही है, इसलिए चीन पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता है। चौथा, भारत खुद एशिया की एक उभरती हुई शक्ति है फिर चीन का यह प्रस्ताव कुबूल कर वह क्यों चीन के मातहत रहने का जोखिम मोल लेता। लिहाजा, भारत ने ओबीओआर में शामिल न होकर खुद के वैश्विक महाशक्ति बनने की संभावनाओं को जिन्दा रखा है।

हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि चीन से आगे होने के लिए हमारे पास अकूत संभावनाएँ हैं और चीन के पास तात्कालिक भविष्य है, जबकि हमारे पास दीर्घकालिक और वर्तमान में भारत दुनिया में सबसे तेज रफ्तार से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था है। हालांकि, चीन लगतार भारत के लिए आगे भी चुनौती पेश करता रहेगा और भारत को अपनी क्षमता साबित करने के लिए कई इम्तिहान से गुजरना होगा। लिहाजा भारत को बुनियादी ढाँचागत परियोजनाओं को गति देते हुए अपने प्रभाव क्षेत्र को मजबूत करने के तरीके खोजने की जरूरत है।

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