कोरोना वायरस से पस्त हो चुके अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अपने व्यवहार को लेकर सुर्खियों में है। इस बार उनके अप्रत्याशित व्यवहार की गाज भारत पर गिरी है। कोरोना की मार से बोखलाएं ट्रंप ने मंगलवार को कहा कि कोरोना की इस जंग में अगर भारत ऐंटी मलेरिया टैबलेट के निर्यात पर से प्रतिबंध नहीं हटाता है, तो अमेरिका भी जवाबी कार्रवाई कर सकता है। दरअसल पूरा घटनाक्रम मलेरिया रोधी दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को लेकर है।
हाइडोक्सीक्लोरोक्वीन मलेरिया की एक पुरानी और सस्ती दवा है ट्रंप इसे कोविड-19 के इलाज के लिए एक व्यवहारिक उपचार बात रहे हैं। इस लिए उन्होंने इस रविवार को पीएम नरेन्द्र मोदी से टेलिफोन पर बात की । बातचीत के दौरान दोनों नेताओं के बीच इस दवा के संदर्भ में भी बात हुई और ट्रंप ने दवा अमेरिका को देने को कहा। प्रतिउत्तर में मोदी ने कहा कि भारत ने दवा के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रखा है,अत: वह इस पर विचार करेंगे। भारत अमेरिका की इस मांग पर कोई निर्णय ले पाता उससे पहले ही ट्रंप ने भारत को धमकी भरे लहजे में कहा कि भारत दवा देता है, तो बहुत अच्छी बात है और नहीं भी देता तो उन्हें परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) ने 25 मार्च को इस दवा के निर्यात पर रोक लगा दी थी। सवाल यह है ट्रंप की इस बचकानी हरकत को भारत किस संदर्भ में ले। देखा जाए तो भारत के सामने फिलहाल दो मार्ग हैं। प्रथम, अमेरिका को अमेरिकी भाषा में ही जवाब देकर इस कठिन वक्त में निरर्थक बयानबाजी का एक अंतहीन सिलसिला शुरू कर दे या फिर मानवीय पहलू का लिहाज कर अमेरिका को दवा की सप्लाई की हामी भर दे।
फिलहाल भारत दूसरे मार्ग पर ही चलता हुआ दिखाई दे रहा है। ट्रंप की धमकी से एक सवाल यह भी उठता है कि अमेरिका जिस परिणाम को भुगतने की धमकी दे रहा है, वह क्या हो सकता हैं? जाहिर है, ट्रंप का ईशारा किसी सैनिक कार्रवाई की ओर तो निश्चित ही नहीं था । ज्यादा से ज्यादा वह व्यापार टैरिफ या आर्थिक प्रतिबंध जैसे कोई कदम उठा सकते थे। जहां तक आर्थिक प्रतिबंध का सवाल है, भारत पर इसका कोई बहुत बड़ा असर पड़ने वाला नहीं था। अमेरिका बहुत पहले ही अपने इस अस्त्र को भारत पर आजमा कर देख चुका है। साल 1998 में वाजपेयी सरकार के समय पोकरण में परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद अमेरिका ने भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे। इसी तरह अक्टूबर 2018 में भारत ने अपनी रक्षा जरूरतों को देखते हुए रूस के साथ पांच अरब डॉलर के एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीद किए जाने संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर किए तो अमरीका आगबबूला हो उठा और भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दी।
कहने का भाव यह है कि धमकी, चेतावनी और अवांछित सलाह देना अमेरिका और उसके शासकों की पुरानी फितरत है और दुर्भाग्य से ट्रंप उनसे दो कदम आगे ही हैं। मामला चाहे कश्मीर पर मध्यस्थता का रहा हो या ईरान से तेल के आयात का, ट्रंप झूठ बोलने और बिन मांगी सलाह देने से गुरेज नहीं करते । पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की अमेरिकी यात्रा के दौरान इमरान ने जब कश्मीर का मुद्दा उठाया तो ट्रंप ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि स्वयं भारत के प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने उनसे कश्मीर मामले में मध्यस्थता करने की अपील की है। व्हाइट हाउस कवर करने वाले बहुत से पत्रकारों ने ट्रंप के इस बयान को झूठा और गैर संजीदा बताया। इसी तरह ट्रंप ने ईरान मसले पर भी भारत को गैर जरूरी सलाह दी। ईरान से नाभिकीय संधि तोड़ने के बाद ट्रंप ने भारत सहित दुनिया के तमाम देशों से कहा था कि ईरान से तेल का आयात पूरी तरह बंद कर दे। इससे पहले अक्टूबर 2018 में भी ट्रंप ने सउदी अरब के किंग सलमान को चेतावनी दी थी कि वह अमेरिकी सेना के समर्थन के बिना दो हफ्ते भी सता में नहीं टिक पाएंगे। अपने झूठ और बड़बोलेपन के लिए ट्रंप पूरी दुनिया में बदनाम नेता के रूप में जाने जाते है। अमेरिकी मीडिया उनके झूठ पर अनेक दफा खबरें छाप चुका है।
लेकिन सवाल यह है कि भारत को अपना दोस्त बताने बाले ट्रंप हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दवा को लेकर इतने मुखर क्यों हुए। क्या अमेरिका में मौत के लगातार बढ़ते हुए आंकड़ो को देखकर ट्रंप अपना आपा खो रहे हैं, या उसकी असल वजह कुछ और ही है। अमेरिका के एक प्रतिष्ठित दैनिक की खबर पर विश्वास करें तो ट्रंप इस दवा के प्रति इस लिए उतावले नहीं है कि उन्हें लाखों अमेरिकीयों की जान बचाने की चिंता है, बल्कि इस दवा में कहीं न कहीं उनके व्यक्तिगत हित छिपे हुए नजर आते हैं।न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी खबर के अनुसार ट्रंप दवा के लिए इस लिए उतावले हो रहे हैं, क्योंकि इसमें उनका निजी फायदा है। अखबार ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि अगर हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को पूरी दुनिया अपना लेती है, तो दवा कंपनियों का इससे बड़ा फायदा होगा। जिनमें से एक कंपनी सैनोफी में ट्रंप का भी हिस्सा है। अखबार ने कंपनी के अधिकारियों के साथ ट्रंप के गहरे रिश्ते होने का दावा भी किया है। अगर यह खबर सच है, हाल ही में महाभियोग की कार्रवाई से क्लीन चिट लेकर निकले ट्रंप को आने वाले चुनाव में इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
निसंदेह अमेरिका इस वक्त अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। कोरोना महामारी के चलते अमेरिका में 4 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं, और 13 हजार से अधिक लोग इसके शिकार हो चुके हैं। इसके बावजूद ट्रंप अमेरिकी जनता को केवल कोरा दिलासा देते दिख रहे हैं। कुप्रबंधन और ठोस कार्ययोजना के अभाव से उपजी अपनी इसी हताशा को वह कभी चीन पर तो कभी डब्ल्यूएचओ पर निकाल रहे हैं। ऐसे कठिन वक्त में भी दुनिया में अपनी चौधराहट चमकाने की कोशिश में लगे ट्रंप ने भारत के खिलाफ जिस तरह की भाषा का इस्तेमान किया है, वह विदेश नीति के स्थापित सिंद्वातों और मयार्दाओं का उल्लंघन तो है ही, साथ ही अमेरिकी कूटनीति के स्याह चेहरे को भी दुनिया के सामने प्रकट करता हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत को भी ट्रंप के धमकी भरे लहजे के बाद कुछ कूटनीतिक बिंदुओं पर चर्चा नहीं करनी चाहिए थी। ट्रंप की धमकी के कुछ ही घंटों के भीतर भारत ने जिस तरह से आनन-फानन में दवा के निर्यात पर से प्रतिबंध हटाने का फैसला किया उससे देश के भीतर सरकार के कदम की आलोचना हो रही है। विपक्ष सहित दूसरे लोगों का कहना है कि 70 साल के इतिहास में पहली बार भारत अमेरिकी धमकी के आगे झुका है। सरकार के निर्णय की यह कहकर भी आलोचना की जा रही है कि पिछले दिनों ही पीएम नरेन्द्र मोदी ने ट्रंप के दौरे पर सौ करोड़ रुपए खर्च किए थे । क्या ट्रंप की इस धमकी को भारत की राजनीतिक और आर्थिक सम्प्रभुता को चुनौती के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए था। स्थिति चाहे जो भी इस पूरे प्रकरण में जहां एक ओर भारत की छवि विश्व समुदाय में निखरी है, वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप की एक बार फिर फजीहत हुई है।
एन.के. सोमानी
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