भारत व चीन के सीमा विवाद में अमेरिका दिलचस्पी ले रहा है, यह मध्यस्थता के नाम पर अमेरिका की अपने हित साधने की नापाक कोशिश है। अभी लेह की गालवन घाटी व पेगोंग झील पर भारतीय चीनी सैनिकों की तनातनी को भारत चीन ने एक बार अपने कूटनीतिक तंत्र को सक्रिय कर शांत कर लिया है परन्तु कश्मीर मसले के बाद यह दूसरी बार है जब अमेरिका ने भारत के सीमा विवाद में अपनी मध्यस्थता पेश कर दिलचस्पी दिखाई है। जब भारत चीन दोनों ने ही अमेरिका को मध्यस्थता से मना कर दिया है, तब अमेरिका ने कहा कि सम्पन्न, ताकतवर और लोकतांत्रिक भारत ही चीन के गलत मंसूबों को नाकाम करेगा क्या यह भारत को सम्पन्न व ताकतवर बनने की नसीहत है या फिर सम्पन्न व ताकतवर कहकर चीन से भिड़ जाने की उकसाहट है?
भारत को विश्व नेताओं की बातों को सुनकर, समझ लेना चाहिए परन्तु अपने मसलों का हल अपनी आंतरिक राजनीतिक, आर्थिक सुरक्षा ताकत के बल पर ही करना होगा, यह भी याद रखना चाहिए। अमेरिका की आदत है कि वह पहले व्यापार के लिए दोस्ती का हाथ बढ़ाता है, खुद कमाता है, दोस्तों को भी कमाई करवाता है अंत में दोस्तों को लड़ाई के लिए उकसाता है और बीच मैदान के अपनी राह पकड़ लेता है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि कोरोना की महामारी के चलते दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं काफी नुक्सान उठा रही हैं। भारत भी कोरोना महामारी व आर्थिक झटकों से अछूता नहीं है और चीन इस अवसर का लाभ उठाने की पुरजोर कोशिशों में लगा हुआ है। चीन ने इस महामारी के दौरान सबसे पहले अपने तेल रिजर्व को भरा है। तेल सीधी लड़ाई में एक बड़ा हथियार है यह जंग एवं बाजार दोनों मोर्चों पर काम आता है। चीन की तैयारी पूरी है, उधर अमेरिका में हुई मौतों एवं कोरोना की वजह से हो रहे आर्थिक नुक्सान के लिए अमेरिका चीन को जिम्मेवार ठहरा रहा है। इन दिनों अमेरिका कई बार चीन विरोधी ब्यान दे चुका है। अमेरिकी कम्पनियों को दो टूक कहा जा रहा है कि व चीन से जल्द से जल्द निकल जाएं।
कोई देश लड़ाई में स्वंय का नुक्सान न हो इसके लिए सबसे पहले अपने व्यापारियों, अपनी पूंजी को भी सुरक्षित करता है, शायद अमेरिका भी ऐसा ही कर रहा है। भारत को उकसाने की मंशाए साफ हैं। अमेरिका, चीन के सबसे निकट पड़ोसी व सीमा विवाद में उलझे भारत को अपने सहज सहयोगी के तौर पर लड़ाई में साथ खड़े देखना चाहता है। भारत को चाहिए कि वह किसी आक्रामक मूड में आने से पहले अमेरिकी हितों पर जरूर नजर डाल ले कि वह कितने खर्च व कितने समय में पूरे हो जाने वाले हैं क्योंकि उसके बाद अमेरिका एक दिन भी आगे नहीं लड़ेगा भले वह सीधी लड़ाई हो या शीत युद्ध। भारत को भविष्य में अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए अमेरिकी सहयोग पर भी नजर डालनी होगी वह संस्थागत पूंजी निवेश होगा? अमेरिकी या वैश्विक संस्थाओं के ऋण होंगे? या अमेरिकी अनुदान होंगे? क्योंकि आखिरी कीमत भारतीयों को ही चुकानी है। चीन से भारत को अपना भू-भाग वापिस चाहिए तब चीन के साथ अमेरिका के शीत युद्ध को लंबा होने दिया जाए फिर चीन व अमेरिका की आर्थिक मजबूती का पूरा निर्णय भी हो जाएगा। अगर बाजार में चीन ध्वस्त होगा तो भारत के रास्ते आसान होंगे।
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