यूक्रेन में लड़ाई को लेकर रूस के साथ व्यापारिक लेन-देन पर अमेरिका या पश्चिमी देशों का भारत पर दबाव बनाना किसी भी दृष्टि से तार्किक नहीं है। इसे भारत और रूस के संबंधों की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। यह जगजाहिर तथ्य है कि भारत और रूस के संबंध बहुत पुराने और घनिष्ठ हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण मुद्दों पर रूस हमेशा भारत के साथ खड़ा रहा है। उसके साथ हमारा सैन्य सहयोग बहुत गहरा रहा है। भारत का जो परमाणु कार्यक्रम है, उसमें व्यापक रूसी सहायता रही है।
शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद भी पश्चिमी देशों के मन में संशय का भाव रहा है, पर भारत के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाये रखने में रूस का रवैया सकारात्मक रहा है। सुरक्षा परिषद् के संदर्भ में देखें, तो भारत का मानना रहा है कि स्थायी सदस्यों में पश्चिमी देश और चीन कभी भी एक ओर झुक सकते हैं, जबकि रूस ने हर मामले में भारत का साथ दिया है। सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की भारत की मांग पर पश्चिम का रवैया टाल-मटोल का रहा है। अगर आज भारत भी उस संस्था में बतौर स्थायी सदस्य होता, तो वर्तमान मामले का रूप कुछ और होता। अमेरिका दुनियाभर के देशों पर दबाव बना रहा है कि वे रूस के साथ कारोबारी रिश्ते न रखें।
भारत पर अधिक दबाव डालने की वजह यह है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में उसका विशिष्ट स्थान है। अमेरिका को लगता है कि अगर भारत भी अपने संबंधों को सीमित कर लेता है, तो उसका एक नैतिक दबाव रूस पर होगा। सामरिक और कूटनीतिक संबंधों के साथ रूस और भारत के आर्थिक संबंध भी हैं। रूसी रक्षा उत्पादों का भारत एक बड़ा खरीदार है। यदि वह इसमें कमी या कटौती करेगा, तो रूस प्रभावित होगा। अमेरिका वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक रूप से भी रूस को अलग-थलग करना चाहता है। अगर भारत उसके साथ आ जाता है, तो कई देश भी वही रुख अपनायेंगे। यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि अमेरिका केवल अपने हितों को ही साधना चाह रहा है और वह भारत के हितों को नजरअंदाज कर रहा है।
जर्मनी के अलावा यूरोप के अनेक देश भी रूस से खरीद कर रहे हैं। ऐसे में अमेरिका को पूरी स्थिति को समझना चाहिए। समूची दुनिया में तेल और गैस के दाम बढ़े हुए हैं तथा मुद्रास्फीति बढ़ रही है। भारत इसका अपवाद नहीं है। भारत और अमेरिका क्वाड में सहयोगी देश हैं। बीते कुछ दशकों में दोनों देशों के रणनीतिक और आर्थिक संबंध भी गहरे हुए हैं। इस पृष्ठभूमि में उसके पास भारत से मनमुटाव करने का विकल्प नहीं है। यह कहा जा सकता है कि क्वाड जैसी पहलों और पश्चिम के साथ बेहतर होते रणनीतिक संबंधों पर इस प्रकरण का कोई विशेष प्रभाव नहीं होगा। पश्चिम समेत कई देशों का वह तकनीक से जुड़े उद्योगों में सहायक है तथा वह खाद्य पदार्थों का भी बड़ा निर्यातक है। यही कारण है कि युद्ध के विरोधी होने के बावजूद बहुत सारे देश रूस पर रोक लगाने के लिए बढ़-चढ़कर अमेरिका का साथ नहीं दे पा रहे हैं।
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