प्रत्येक आपदा में लाभ के समान और बड़े अवसर भी होते हैं। सफल लोग और देश इस उक्ति का अनुभव अक्सर महसूस करते हैं। वर्तमान महामारी में भी ऐसे कुछ लाभ हैं और सजग लोग उन लाभों को भांप लेंगे। इस लेख में मैं इस महामारी के भारत जैसे बड़े देश के लिए आर्थिक लाभों पर प्रकाश डालूंगा। इन लाभों का अवसर इस बात से मिल सकता है कि बड़े देश चीन को अलग-थलग करना चाहते हैं जो वर्तमान में विश्व आपूर्ति श्रृंखला का आधार और विनिर्माण केन्द्र है।
स्तंभ में मैंने पहले भी लिखा था कि किस प्रकार विश्व के देश इस महामारी के लिए चीन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और उसे हाशिए पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। अब आस्ट्रेलिया ने इस रहस्मययी कोरोना महामारी की उत्पति की जांच की मांग की है और चीनी नेतृत्व इससे नाखुश है तथा उसने इस आधार पर इस पर आपत्ति की है कि विषाणु आदि की जांच की कोई परंपरा नहीं है। आस्ट्रेलिया में चीन के राजदूत ने उसे परोक्ष आर्थिक धमकी भी दी है किंतु इस धमकी का करारा प्रत्युत्तर देते हुए आस्ट्रेलियाई नेतृत्व ने चीन से इन धमकियों की प्रकृति और इरादों को स्पष्ट करने के लिए कहा है।
डोनाल्ड ट्रम्प इस महामारी के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराते हैं और वे बार बार कह चुके हैं कि वे मुआवजे के लिए चीन पर मुकदमा करेंगे। हमारे देश में भी वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी ने भारत के बड़े मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के साथ बातचीत में उनसे आग्रह किया है कि वे चीन के विरुद्ध विश्व समुदाय की भावना का लाभ उठाएं। उनका कहना है कि भारतीय उद्यमियों को चीन से बाहर आ रही कंपनियों से निवेश आकर्षित करने के लिए जीतोड़ मेहनत करनी होगी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस अवसर का लाभ उठाने और कोरोना के बाद बहुराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला का केन्द्र बनने का आह्वान किया है। हमारा राजनीतिक नेतृत्व और उद्योगपति इसे एक अवसर के रूप में देखते हैं किंतु प्रश्न उठता है कि क्या हम इस अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी खंडित अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण कर सकते हैं और वर्ष 2025 तक भारत की अर्थव्यवस्था को 5 टिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बना सकते हैं।
नि:संदेह भारत प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है बशर्तें हम चीन के प्रति विश्व समुदाय की भावना का लाभ उठा सकें। इस दिशा में हमें कुछ कदम उठाने होंगे। नोमुरा ग्रुप का कहना है कि हाल ही में 48 बड़ी कंपनियों ने चीन से अपना उत्पादन आधार हटाया है। उसमें से 26 वियतनाम गई। 11 ताईवान, 8 थाईलैंड और केवल तीन भारत में आई। यह भारत के लिए बुरी खबर है। इसलिए भारत सरकार को निवेश आमंत्रित करने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे। पहला, भारत सरकार को निवेश आकर्षित करने के लिए इन कंपनियों से केवल आग्रह करना पर्याप्त नहीं है। भारत में उद्योग और नागरिक समाज को इस अवसर का लाभ उठाना पड़ेगा किंतु दोनों ही इस मामले में मार्ग निर्देशन और संरक्षण के लिए भारत सरकार पर निर्भर हैं।
दूसरा, हम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अक्सर उपेक्षा करते हैं क्योंकि हमारे ध्यान में हमेशा पहली बहुराष्ट्रीय कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी रहती है जोकि आज इतिहास बन चुकी है।आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार और निवेश आर्थिक वृद्धि को बढाते हैं इसलिए हमें निवेशकों के अनुकूल वातावरण बनाना होगा। ऐेसे वातावरण बनाने के लिए हमें देश में रह रहे विदेशी नागरिकों को उनकी इच्छानुसार रहने की अनुमति देनी होगी। एक कोरियाई कंपनी के उच्च अधिकारी के अनुसार वे भारत में अपने देश के खाने के लिए तरसते हैं जिन्हें यहां ऐसा खाना नहीं मिलता है और उसे कोरिया से मंगाना पड़ता है। दूसरा हमें उन चीजों का उत्पादन शुरू करना होगा जिसका हम चीन से आयात करते हैं। चीन का माल अक्सर घटिया स्तर का होता है। जब तक हम छोटी और कम प्रौद्योगिकी वाली वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते फिर हम बड़े उत्पादों के मामले में चीन का मुकाबला कैसे कर सकते हैं।
उत्पादन बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों, पालीटेक्नीक संस्थानों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और भारतीय प्रबंध संस्थानों को उद्योगों के साथ समन्व्य करना होगा और उन्हें स्टार्टअप में भाग लेने की अनुमति देनी होगी जैसा कि हार्वर्ड और अन्य विश्वविद्यालयो में किया जाता है। आईआईटी बॉम्बे ने ऐसी भागीदारी पर सरकार के प्रतिबंधों से बचने के लिए एक स्पेशल परपज व्हीकल बनाया है किंतु इससे व्यवसाय करने में आसानी नहीं हो रही है। चौथा, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी समयबद्ध ढंग से दी जानी चाहिए। ऐसे प्रस्तावों की मंजूरी के लिए समय सीमा तय हो ताकि निवेश अपनी प्रचालन योजनाएं बना सके। यदि कोई प्रस्ताव रद्द किया जाता है तो उसके कारण स्पष्ट किए जाने चाहिए। प्रधानमंत्री की मेक इन इंडिया नीति को मेक इन ग्लोबल नीति में बदला जाना चाहिए। इससे प्रौद्योगिकी अनुसंधान तथा विकास की सहायता से विश्व स्तरीय उत्पादों का निर्माण होगा।
इस संबंध में कुछ लोगों का मानना है कि भारत निवेशकों पर नियंत्रण करने के लिए कुख्यात है। वालमार्ट, वोडाफोन, नोकिया आदि जैसी कंपनियों के अनुभव को देखिए। उन्हें भारत सरकार ने नियंत्रित किया है। आजकल निवेशक एक निवेश के बजाय जोखिम में रहते हैं किंतु इस तर्क में चीन के निवेश की प्रकृति व्यापार की रणनीति, विदेश नीति सुरक्षा और निवेश के बीच संबंधों को नजरंदाज किया गया है। चीन का निवेश पूर्णत: राजनीतिक होता है क्योंकि वहां की अधिकतर बड़ी कंपनियां चीन सरकार द्वारा संचालित या नियंत्रित हैं। पहले ऐसा अमरीकी निवेश के बारे में कहा जाता था कि अमरीकी डॉलर के बाद अमरीकी सिपाही आते हैं किंतु अब यह बात चीन के बारे में लागू होती है।
दूसरा, चीन अपने निवेश द्वारा पाकिस्तान को आकर्षित करने और संयुक्त राष्ट्र में उसका समर्थन कर भारत का खुल्लमखुल्ला विरोध करता है। चीन पिछले दस वर्षों से सुरक्षा परिषद द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के मार्ग में व्यवधान डाल रहा है। चीन अपने नागरिकों पर निगरानी रखकर, उनके विरोध के स्वरों को दबाकर अपनी छवि एक बड़ी अर्थव्यवस्था और अगली महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। इसके लिए वह समृद्ध देशों में मीडिया को पैसे देता है और जिन देशों के पास संसाधन नहीं हैं वहां पैसा देकर ऐसा करता है। क्या भारत को इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए? क्या भारत इस चक्रव्यूह में फंसने के बाद निकल पाएगा? जब संपूर्ण विश्व चीन से दूरी बनाने की सलाह दे रहा है तो फिर उसके साथ व्यवहार करना उचित नहीं होगा। इसलिए हमारी रणनीति चीन को अलग करने और उसके साथ व्यवहार न करने की होनी चाहिए। गडकरी और मोदी के बयानों से स्पष्ट है कि हमारा नेतृत्व सही दिशा में आगे बढ़ रहा है और अब उनके बयानों को कार्यरूप देने की आवश्यकता है।
डॉ. डीके गिरी
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