तंत्रता केवल राजनीतिक आर्थिक नहीं होती, वह राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भी होती है। सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की किसी राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रखने का काम करती है। भगवान राम ने उत्तर से दक्षिण और कृष्ण ने पश्चिम से पूरब तक की जो यात्राएं की थीं, वे घुसपैठिये आक्रांताओं को अपदस्थ करने के साथ देश को एकरूपता देने की भी पर्याय थीं। इनसे पहले यही काम विष्णु के छठे अवतार माने जाने वाले परशुराम ने भी किया था। इक्कीस आततायी क्षत्रपों को पराजय का मुख दिखाकर उन्होंने ठेठ पूर्वोत्तर अरुणाचल प्रदेश के लोहित कुंड में अपना रक्त रंजित परसा धोया था। लाल रंग के पानी से भरा रहने वाला यह कुंड ब्रह्मपुत्र नदी का हिस्सा है। इसके बाद परशुराम ने दक्षिण के समुद्री तट के कोंकण क्षेत्र में केरल को बसाया और यहां रहने वाले वनवासियों व शुद्रों को प्रशिक्षित कर ब्रह्माण तक बनाया। 15 अगस्त 1947 को भारत को खंडित राजनीतिक आजादी मिली थी। हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनियों के वजूद में बने रहने से आर्थिक गुलामी बनी हुई थी।
1991 में आर्थिक उदारवाद के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत भूमि पर विस्तार इसी आर्थिक परतंत्रता का विस्तार है। दरअसल किसी भी राष्ट्र की सांस्कृति का लोक में प्रभाव ही राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को एकरूपता देने का काम करता है। जम्मू-कश्मीर राज्य में हमने धारा-370 और 35-ए के बहाने दो विधान, दो प्रधान और दो निशान (झंडा) की सुविधा देकर बड़ी भूल संविधान के मूल्य चुकाकर की थी। बीते वर्ष 5 अगस्त को इन धाराओं को विलोपित कर दिए जाने से जो कश्मीर स्याह बना कर दिया गया, वह तेजी से श्वेत रूप में बदल रहा है। इधर राम मंदिर की नींव प्रधानमंत्री द्वारा रख दिए जाने से सांस्कृतिक स्वतंत्रता भारतीय अस्मिता को एक रूप में ढालने का काम कर रही है। दुनिया के गणतंत्रों में भारत प्राचीनतम गणतंत्रों में से एक है। यहां के मथुरा, पद्मावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिंदू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे।
केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था। लेकिन भक्ति, अतिरिक्त उदारता, सहिष्णुता, विदेशियों को शरण और वचनबद्धता जैसे भाव व आचरण कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोष रहे, जिनकी वजह से भारत विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देश में बदलता चला गया है कि राजनीति का एक पक्ष आज यहां समस्याओं को यथास्थिति में रखने की पुरजोर पैरवी करने लग जाता है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के संदर्भ में जो राष्ट्रीय नागरिकता पत्रक की सूची आई है, उस परिप्रेक्ष्य में यही देखने में आ रहा है। विपक्षी दलों के ऐसे स्थाई भाव के चलते चुनौतियों से निपटना और आजादी के बाद अनुत्तरित रह गए प्रश्नों के व्यावहारिक हल खोजना मुश्किल हो रहा है। गोया, चुनौतियों से निपटने में सामूहिक भावना परिलक्षित नहीं होती है।
बहरहाल तमाम उपलब्धियों के बीच शिक्षा में ही नहीं सभी क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों का क्षरण हुआ। आपातकाल के बाद जनता दल की गठबंधन सरकार गिरने के बाद संजय गांधी की युवा-टोली को राजनीति में प्रवेश मिला, उसने मूल्यों के अवमूल्यन की पृष्ठभूमि रची। हाशिए पर पड़े सामंत और जमींदार बड़ी संख्या में एकाएक राजनीति की केंद्रीय भूमिका में आ गए। जब ये विधायक एवं सांसद के रूप में सत्ता-तंत्र में हस्तक्षेप के अधिकारी हुए तो इन्होंने पुन: मृतप्राय: समंती दुष्प्रवृत्तियों को सींचकर हरा-भरा कर लहलहा दिया। गांधी और नेहरू के निष्ठावान अनुयायी लगभग निर्वासित कर दिए गए। नतीजतन 1984 में पंजाब में पनपे उग्रवाद के चलते इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो प्रतिकार स्वरूप पूरे देश में कांग्रेसी सत्ता के सरंक्षण में सांप्रदायिक हिंसा हुई। इसी की पृष्ठभूमि से भाषाई, जातीय व क्षेत्रीय अस्मिताएं प्रखर आंदोलन के रूप में उभरीं। 1989 में जब वीपी सिंह की सरकार को देवीलाल ने अस्थिर किया तो उन्होंने मंडल का पिटारा खोल दिया। इसे लेकर मंडल-कमंडल में भी हिंसक टकराव देखने में आए।
फलस्वरूप राममनोहर लोहिया के जो अनुयायी भाषाई आंदोलन चला रहे थे, उनकी प्राथमिकता पिछड़ों के जातीय और क्षेत्रीय हितों में जमींदोज हो गई। मुलायम, लालू, शरद, नीतीश और मायावती इन्हीं आंदोलन के अगुआ रहकर मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में मंत्री बने। यही वह दौर रहा है, जिसमें धनबल और बाहुबल का राजनीति में पर्दापण हुआ तथा अपराध का राजनीतिकरण एवं राजनीति का अपराधीकरण हुआ। कांग्रेस और भाजपा भी इससे अछूते नहीं रहे। रही-सही कसर 24 जुलाई 1991 को सरंचनागत समायोजन के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में व्यापार का जो समझौता हुआ, उसने देश की आर्थिक आजादी को लगभग 500 साल के लिए गिरवी रख दिया। नतीजतन हम नवउपनिवेश के गुलाम होते जा रहे हैं। इन कंपनियों की आवारापूंजी, पूंजीवाद के विस्तार और प्राकृतिक संपदा की लूट में लगी हुई है। उपभोग की संस्कृति बेलगाम होती जा रही है।
अतएव लगता है कि संविधान की प्रस्तावना के उदात्त आदर्श व उद्देश्य पूरे नहीं हुए हैं। गोया राजनीति त्याग, समता, अपरिग्रह और जनसेवा की भावना से प्रेरित होने की बजाय लाभकारी व्यवसाय, धनोपार्जन का माध्यम और सत्तासुख भोगने का साधन बनती जा रही है। भारतीय संविधान ने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया, जिसमें समस्त निर्वाचित जन-प्रतिनियों और मंत्रियों के पवित्र उत्तरदायित्व की परिकल्पना है। साफ है, संविधान निमार्ताओं ने ऐसी संकल्पना कतई नहीं की थी, जिसमें मंत्रियों के दायित्व में आम आदमी बहिष्कृत होता चला जाए।
इसी कुटिल मंशा के चलते सत्ता में भागीदार अपने लिए तो अधिकतम प्रजातांत्रिक अधिकारों की मांग उठाते हैं, लेकिन दूसरों को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार के कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता जताते नहीं दिखते हैं। अधिकार और कर्तव्य की यह ऐसी विडंबना है, जो लोकतंत्र की बढ़ती उम्र के साथ जटिल होती जा रही है। इसी तात्कालिक लाभ की दृष्टि के चलते नेताओं की दलों के प्रति निष्ठा भंग हुई है। लिहाजा चुनावी मौसम में दलबदलुओं के टिड्डी दल दिखाई देने लगते हैं। इसी कारण संसद और विधानसभाएं दलबदल और अस्थायी बहुमत का दंश झेलने को बाध्य हो रही हैं।
स्वतंत्रता के बाद से ही हम पढ़ते व सुनते चले आ आ रहे हैं कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है। सत्तर प्रतिशत आबादी ग्रामों में रहती है और खेती-किसानी व पशुधन से जीविकोपार्जन करती है। इसी धारणा पर देश विकसित होता चला गया और अब वर्तमान में हम उच्च विकास दर के साथ विकसित देशों की होड़ में शामिल हैं। इस समय भी देश में कृषि उत्पादन चरम पर है। वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 में 275 मिलियन टन खाद्यान्न और करीब 300 मिलियन टन फल व सब्जियों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। बावजूद किसान आत्महत्या और किसानों द्वारा सड़कों पर फसल और दूध नष्ट करना, अर्से से चिंतनीय पहलू बना हुआ है। किंतु अब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने नए बजट प्रावधान करते हुए यह संकल्प लिया है कि वह 2022 तक खेती-किसानी से जुड़े लोगों की आमदनी दोगुनी करेगी।
इस हेतु विभिन्न फसलों पर समर्थन मूल्य बढ़ाए गए हैं। साथ ही फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि लगत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण एवं कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की इच्छा जताई है और नीतिगत उपाय भी किए हैं। भुगतान का डिजीटल लेन-देन से भी किसान, गरीब और वंचितों को उनके हक का पूरा पैसा मिलने लगा है। यहां गौरतलब है कि जिस आर्थिक विकास को हम 7 से 7.8 प्रतिशत तक ले जाना चाहते हैं, वह ग्रामीण भारत पर फोकस किए बिना संभव ही नहीं है। यही जमीनी विकास आर्थिक विकास की कुंजी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी आर्थिक मजबूती में पिछले कई दशकों की कृषि उत्पादकता ने अह्म भूमिका निभाई है, तथापि सच्चाई यह है कि आज कृषि हमारे आर्थिक विकास के ऊंचे मानकों से बहुत नीचे है। बड़े उद्योग, सेवा क्षेत्र, विनिर्माण आदि कृषि के मुकाबले आगे निकल गए हैं। इसलिए इसे सरकारी सरंक्षण से संवारे जाने की ऐसी ही निरंतरता बनी रहना चाहिए।
-प्रमोद भार्गव
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