केन्द्र सरकार ने खरीफ की फसलों के खासकर धान के भाव में 200 रुपये का रिकार्ड वृद्धि कर किसानों को खुश करने का प्रयास किया है। बेशक यह दुरुस्त कदम है पर ऐसे कदम पहले ही उठाए जाने की जरूरत थी। पिछले वर्षों में मोदी सरकार ने फसलों के न्यूनतम भावों में मामूली सी बढ़ोत्तरी की थी। भले ही इस बढ़े भाव के पीछे अगले लोकसभा चुनाव मुख्य कारण हंै फि र भी इसे कृषि संकट का हल नहीं माना जा सकता। यह भी तथ्य हैं कि स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशें लागू करने से भी कृषि संकट हल नहीं होता। कमिशन की सिफारिशें खर्चे व मुनाफे पर आधारित हैं। आज का संकट सिर्फ कृषि का घाटा होने तक ही सीमित नहीं बल्कि कृषि का अस्तित्व खत्म होने का है। यदि किसान को धान का भाव ज्यादा मिल भी गया तो वह भूजल के खत्म होने की हालत में कृषि कैसे करेगा।
धान की कीमत बढ़ने से किसान के लिए फायदेमंद हो या ना हो लेकिन यह भूजल के संकट को और अधिक गंभीर करेगा। केंद्र सरकार ने भाव तय करते समय फसली विभिन्नता को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया है। धान के साथ-साथ मक्की तथा अन्य फसलों की बिजाई बढ़ाने पर जोर देने की जरूरत है। जहां तक कृषि लागत खर्चों की बात है डीजल का रेट लगातार बढ़ रहा है, जिससे धान के रेट में बढ़ोत्तरी किसानों के लिए कोई बड़ी राहत नहीं है। खादों पर सब्सिडी लगातार घटाई जा रही है। बीज, कृषि के औजार मंहगे हो रहे हैं। इसलिए कृषि का संकट महज कम खरीद मूल्य की देन नहीं बल्कि जमीन की सेहत तथा पानी की शुद्धता की आवश्यक उपलब्धता पर भी निर्भर है। देश का भला किसानों की आर्थिक खुशहाली के साथ भविष्य में धरती पर पानी की बचत में है।
दरअसल कृषि संबंधी नीतियां राजनीतिक चुनावी मत्था पच्ची में घिर गई हैं। खेती विशेषज्ञों की रिपोर्टों को पढ़ा तक नहीं जाता। कहीं ऐसा ना हो कि कृषि की एक कमी को दूर करने के लिए कोई दूसरी गलती हो जाए। स्वामीनाथन की सिफारिशें जायज हैं, जिन्हें पूरा करने के साथ-साथ मौजूदा परिस्थितियों पर भी विचार करना होगा जो आज की वास्तविकता है।
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