आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों को अनसुना कब तक करें?

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आत्महत्या का नाम सुनते ही आंखों के सामने मौत का एक भयावह मंजर खड़ा हो जाता है। एक डरावना शब्द, जो कल तक शब्दकोष में कहीं गुम था, वो आज देश में, समाज में और घर में इस कदर स्थापित हो गया है कि हर कोई इससे डरा सहमा है। कहने को इसके अर्थ मनचाही मौत से जुड़ते हैं, लेकिन सच ये है कि यह एक अनचाही और अनपेक्षित मौत की दर्दनाक स्थिति है।

हालिया बक्सर के कलेक्टर मुकेश पाण्डेय की खुदकुशी ने एक बार फिर कई सवाल खड़े किए हैं। वह पारिवारिक उलझनों से परेशान हो गए थे। उनका कहना था कि वह जिन्दगी से काफी फ्रस्ट्रेट हो गए। हैरान करने वाली बात है कि सिविल सेवा परीक्षा में 14वीं रैंक लाने वाला प्रतिभाशाली व्यक्ति भी जीवन की इस स्वाभाविक परेशानी को झेल नहीं पाए और अवसाद से ग्रसित हो गए। लेकिन, गौर कीजिए कि मुकेश पाण्डेय की समस्या इतनी बड़ी थी कि उनको ये अतिवादी कदम उठाना पड़ा?

जरा सोचिए कि उनके इस कदम से उनकी पत्नी और बच्चों के जज्बात क्या होंगे? उनके इस फैसले से उनके परिवार की विकट परिस्थितियों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। उनको चाहिए था कि वह हालात से लड़ते और पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने की कोशिश को जारी रखते। यकीनन कई बार कोशिश करने से उन्हें कामयाबी जरूर मिलती। वह यह याद रखते कि किस प्रकार सिविल सेवा परीक्षाओं में भी बारंबार असफलताओं के बाद सफलता मिलती है।

लेकिन, अफसोस की बात है कि वह इस कठिन परीक्षा को पास करने के बाद भी इससे मिलने वाली सीख को सहेज कर रख नहीं सके। जरा सोचिए, उनके मरने के बाद यदि समस्या का हल हो भी जाए तो क्या वह उस क्षण के सुख को भोगने के लिए मौजूद रहेंगे? उनको यह समझना चाहिए था कि खुद को दर्दनाक मौत देना किसी समस्या का हल नहीं है, बल्कि समस्या का हल परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करने में है, चुनौतियों को स्वीकार करने में है, एक प्रतिबद्धता के साथ जुझारूपन दिखाने में है।

एक बात काबिल-ए-गौर है कि भारत में आत्महत्या करने वाले 80 फीसदी लोग पढ़े-लिखे होते हैं। तो कहीं हमारी शिक्षण-व्यवस्था तो त्रुटिपूर्ण नहीं है? इस बहस में न जाते हुए मैं यही सुझाव देना चाहुंगा कि सरकार को चाहिए कि वह युवाओं को मूल्यपरक शिक्षाओं से सुपोषित करे। युवाओं को पैसे की मशीन न बनाकर उन्हें जीवन एवं संबंधियों की महत्ता जैसे विषयों की शिक्षा दें, ताकि उनमें तनाव न आने पाए। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को भरपूर समय दें।

अपनी इच्छा व अपेक्षाओं को उन पर न थोपें और उन्हें एक आजाद जिन्दगी जीने की छूट दें। हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने परिजनों एवं दोस्तों की मानसिक स्थितियों को भापें और यदि उनकी कोई समस्या है, तो उसका निवारण भी करें। कोई भी दुख या तकलीफ जिन्दगी से बढ़कर नहीं होती। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा दौर आता है जब सबकुछ खत्म-सा लगने लगता है, लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि हम खुद ही खत्म हो जाएं।

हमारी यही समस्या है कि हम अपने दुखों को दूसरे के दुखों से तुलना किए बगैर ही सबसे बड़ा समझ बैठते हैं। जिन्दगी कई बार इम्तेहान लेती है तो उसे लेने दीजिए, हौसले को बढ़ा कर रखिए। क्योंकि, जब एक तिनका डूबते का सहारा हो सकता है तो फिर हम मौत को वक्त से पहले क्यों बुलाए? अब बहुत हो गई नासमझी। हमें इसे यहीं रोक देना चाहिए। क्योंकि, आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों से निकलती आह को अनसुना नहीं किया जा सकता है।

-रिजवान निजामुद्दीन अंसारी

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