सामाजिक सौहार्द का जितना हृास विगत 50 वर्षों में हुआ है, उतना तो उससे पूर्व के पांच सौ वर्षों में भी नहीं हुआ था, जबकि उस समय न हमारी पहचान थी और न देश की। देश एक उपनिवेश मात्र था। जैसे-तैसे सैकड़ों नाम तथा अनाम सेनानियों की वजह से हमने स्वतंत्रता तो हासिल कर ली। किन्तु आज हम स्वयं ही उसे मिटाने में लगे हुए हैं। संचार तथा परिवहन क्रांति से देशों के मध्य दूरियां कम होती जा रही हैं, जो मनुष्य कभी सामाजिक प्राणी था, वही आज पारिवारिक प्राणी बन गया है और तेजी से एकाकी प्राणी बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। आज सब मनुष्य एक अन्धी-लंगड़ी दौड़ लगा रहे हैं। एक-दूसरे को लंगड़ी मारते हुए आगे निकल रहे हैं। इस अन्धी-लंगड़ी दौड़ में कौन गिरा, कौन कुचला गया, यह देखने के लिए रुकने की किसी को फुर्सत नहीं है।
सबका एकमात्र लक्ष्य एक दूसरे से आगे निकलना है। यह मानव स्वभाव है कि लोग उन्हीं का सबसे ज्यादा हित या अहित करते हैं, जिनको वे जानते-पहचानते हैं। नगरों तथा महानगरों का तो यह हाल है कि लोग अपने आजू-बाजू रहने वाले पड़ोसियों के नाम तथा उनकी शक्ल भी नहीं जानते। कौन कब जाता है, क्या करता है। यह जानने की न तो उत्सुकता है और न ही उनके पास इन व्यर्थ की बातों के लिए समय है। जिन बेजान मशीनों को मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए बनाया था। आज वे ही उसकी मालिक बन बैठी हैं। इसे कहते हैं घूरे के दिन फिरना। जब जड़ वस्तुएं चेतन वस्तुओं पर भारी पड़ने लगें, उससे अजीब और क्या हो सकता है, पर यही तो कलयुग (मशीनी युग) का चमत्कार है। आज की अन्धी दौड़ का एकमात्र ध्येय है अधिकाधिक द्रव्य (धन-सम्पत्ति) का संचय कर मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करना।
भले ही इससे प्राप्त मान-प्रतिष्ठा कितनी ही अस्थायी क्यों न हो। ज्यों-ज्यों मनुष्य का द्रव्य (धन सम्पत्ति) बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों ही उसके शरीर के लिए द्रव (तरल, पानी) सूखता जाता है। नतीजा होता है द्रव पदार्थों पर निर्भर होते जाना। ऐसे लोग धीरे-धीरे ठोस पदार्थों का सेवन करने योग्य नहीं रह जाते, क्योंकि शरीर में इनको पचाने के लिए पर्याप्त पानी नहीं रहता। सकल पदार्थ है जग मांहि करमहीन नर पावत नाही।’ ऐसे ही लोगों पर सटीक बैठती है। ऐसे लोगों को जीवन पर्यन्त तरल पदार्थों को सेवन कर गुजारना पड़ता है। दूसरी तरफ उसकी आजादी को भी ग्रहण लग जाता है।
असुरक्षा भाव के कारण जहां एक ओर वह सुरक्षाकर्मियों से घिरा रहता है तो दूसरी ओर चिकित्सकों के दल से। ऐसे लोग समाज से स्वयं ही दूर होते जा रहे हैं। राष्टÑपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्रीगण ऐसे लोग हैं, जो सामान्य आदमी की तरह न तो बाजार में घूम सकते हैं। न चाट-पकौड़ी खा सकते हैं और न ही कहीं खरीददारी कर सकते हैं। प्राचीनकाल में राजा लोग अपनी जनता का हाल जानने के लिए वेश बदलकर रात्रि को गश्त लगाया करते थे। आज के नेतागण इसके लिए अपने सहायकों पर निर्भर रहते हैं, जिनका खामियाजा उन्हें सत्ता के पंचवर्षीय नवीनीकरण में उठाना पड़ता है। हम साम्प्रदायिक अलगाव, विभेद की तो लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। बड़े-बड़े विशेषज्ञ बैठकर लम्बी-लम्बी बहसें करते हैं, किन्तु दिन-प्रतिदन परिवार विभेद के रूप में मंडराते संकट की अनदेखी कर रहे हैं। प्रोफेशनल अथवा प्रैक्टिकल शब्द स्वार्थी-मतलबी शब्दों का ही रूपान्तरण है।
जब परिवार ही बिखर जायेगा तो न समाज रहेगा न सम्प्रदाय। यदि इन्हें बचाना है तो पहले परिवार को बचाना होगा। सौभाग्य से आज भी ऐसे संयुक्त परिवार मौजूद हैं, जिनकी तीन से भी अधिक पीढ़ियां एक साथ रह रही हैं। भले ही उनके पास अकूत धन-सम्पत्ति न हो, किन्तु उनके साथ उनका पूरा परिवार, बन्धु-बान्धव होते हैं, जो हर दु:ख-सुख में उनके साथ खड़े रहते हैं। उन्हें धन की, साधनों की, संख्या बल की कमी कभी महसूस नहीं होने देते। ऐसे ही परिवारों से स्वस्थ समाज का निर्माण होता था। आवश्यकता है परिवार के विघटन को रोकने की। बिना इसके सामाजिक सौहार्द की कल्पना करना बेमानी है।
लेखक- मुरली मनोहर