बिहार की घटना के बाद पूरे देश में जिस प्रकार की राजनीतिक उथल पुथल का प्रादुर्भाव होता दिखाई दे रहा है। उसमें लोकतंत्र की मर्यादाएं कितनी टूट रहीं हैं और कितनी संवर रही हैं, यह चिंतन का विषय हो सकता है। लेकिन जो राजनीतिक गहमागहमी का वातावरण बना है, वह निसंदेह सभी राजनीतिक दलों को आत्म मंथन करने के लिए बाध्य कर रहा है।
विशेषकर विपक्षी राजनीतिक दलों के लिए तो यह और भी चिंतित करने वाला है। यह बात सच है कि जबसे देश की हवा में मोदी का झोंका आया है, समय के गुजरते वह झोंका एक मनभावन बयार का रुप लेता जा रहा है। इसी बयार के प्रति पूरा देश आशा और विश्वास का भाव प्रकट करता हुआ दिखाई दे रहा है। वहीं दूसरी ओर लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष का सिमटना जारी है।
गुजरात और उत्तरप्रदेश में कांग्रेस सहित विरोधी दलों के विधायकों ने अपने दल की दिशा और दशा को भांपते हुए जिस प्रकार से इस्तीफे दिए हैं, उससे एक बात अवश्य प्रामाणिकता के साथ कही जा सकती है कि इन इस्तीफों में भाजपा की लोकप्रियता और विरोधी दलों में संकुचन का भाव परिलक्षित हो रहा है। अब इन हालातों में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उस अभियान का हिस्सा तो नहीं है,
जिसमें वे कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के नारे का उद्घोष करते हैं। अगर यह उस अभियान का हिस्सा है तो निश्चित ही विरोधी दलों को यह मंथन करना चाहिए कि उनके दल में ऐसी कौन सी कमी है, जिसके कारण यह स्थिति पैदा हो रही है। क्या कांग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं में अपने दल के प्रति अविश्वास की भावना निर्मित हो रही है? अगर यह सही है तो दूसरे दल पर आरोप लगाने से पहले उन्हें इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि कमीं कहां है।
जहां तक विपक्षी दलों के विधायक खरीदने के आरोप का सवाल है तो यह भी सोचने का विषय है कि क्या कांग्रेसी, सपाई और बसपा के विधायक आज बिकाऊ हो गए हैं। यहां एक बात कहना समीचीन होगा कि कांग्रेस सहित देश कई दल जो आज विपक्षी दलों की भूमिका में हैं, उन्हें सत्ता की सुविधाओं से लगाव हो गया है। जिस कांग्रेस ने सत्ता का स्वाद सबसे ज्यादा चखा, वह आज सत्ता की सुविधाओं से बहुत दूर हो चुकी है।
कांगे्रस के लिए सत्ता चाह की राह अंधी गुफा में रास्ता खोजने जैसा ही दिखाई दे रहा है। जब सारे रास्ते बंद से दिखाई देने लगते हैं, तब स्वाभाविक रुप से लोग दूसरे रास्ते पर जाने के लिए लालायित रहते हैं। क्या यह सत्य नहीं है कि कांग्रेस के लिए अभी सत्ता के दरवाजे बंद दिखाई दे रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी का जनाधार जिस प्रकार से बढ़ रहा है, वह कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए रोढ़ा का काम करती हुई दिखाई दे रही है। यही कारण है कि आज कांग्रेस में भगदड़ जैसी स्थिति निर्मित हो रही है। इसको रोकने के लिए कांग्रेस को अपनी समीक्षा करना चाहिए, जिसे वह करना ही नहीं चाहती।
जहां तक गुजरात में दिए कांग्रेस विधायकों के पार्टी छोड़ने का सवाल है तो सत्य यही है कि गुजरात में कांग्रेस पार्टी के समक्ष नेतृत्व का संकट है। ऐसे में कांग्रेस में लंबे समय से उपेक्षित हो रहे शंकर सिंह वाघेला ने भी कांग्रेस छोड़ दी, इसके बाद कांग्रेस में नेतृत्व शून्यता की खाई इतनी गहरी हो गयी कि उसे भर पाना असंभव सा लगने लगा है।
गुजरात में वर्तमान में जिस स्थिति का प्राकट्य हुआ है, कमोवेश उसे स्वयं कांग्रेस की ही देन कहा जा रहा है। गुजरात में हताशा के दौर में जी रहे कांग्रेस के विधायकों के सामने अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर कई प्रकार के सवाल भी हैं, जिनका उत्तर कांग्रेस का कोई भी नेता दे पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। ऐसे कांग्रेस के जो विधायक पार्टी छोड़ रहे हैं, उसे स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। दूसरा सबसे बड़ा कारण यह भी माना जा सकता है कि जो राजनेता अपने क्षेत्र की जनता को कुछ देना चाहता है, वह वर्तमान में विपक्ष की राजनीति करते हुए तो नहीं दे सकता, विकास के लिए उसे सत्ता की तरफ देखना ही होगा।
आज राजनीति का यह बहुत बड़ा सच है कि पूरे देश में भाजपा के प्रति जनता और राजनीतिक दलों में आकर्षण का भाव पैदा हुआ है। इसी भाव के चलते लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के कदमों की चाल में तेजी आई है।
सत्ता की दौड़ के लिए लोकतांत्रिक मैराथन में जहाँ भाजपा अपेक्षित सफलता के साथ आगे बढ़ रही है, वहीं विपक्षी दल सिमटते जा रहे हैं। यह भी सच है कि आज पूरे देश का प्रतिनिधित्व तो भाजपा के पास है ही, साथ ही राज्यों के हिसाब से देश के 62 प्रतिशत भाग पर भाजपा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से काबिज है। भाजपा का इस प्रकार आगे बढ़ना विपक्षी दलों की कमजोरी को उजागर कर रहा है। विपक्षी दलों को अपनी कमजोरियों पर भी ध्यान देना चाहिए। केवल आरोप लगाने की राजनीति से स्थिति नहीं बदल सकती।
कांगे्रस में जो राजनेता अपना स्वयं का राजनीतिक प्रभाव रखते हैं, वे आत्म मंथन के दौर से गुजर रहे हैं। कहीं खुलकर तो कहीं दबे स्वरों में कांग्रेस नेतृत्व पर अक्षम होने के सवाल भी उठने लगे हैं। राहुल गांधी के बारे में यह बात सभी को मालूम है कि वे न तो लोकसभा चुनाव में अपना राजनीतिक अस्तित्व बचा पाए और न ही राज्यों के विधानसभा चुनावों में ही अपना राजनीतिक कौशल दिखा पाए।
इतना ही नहीं अधिकांश राज्यों में कांग्रेस को केवल क्षेत्रीय दलों का ही सहारा रह गया है। साफ शब्दों में कहा जाए तो यही कहना होगा कि कई राज्यों में कांग्रेस की हालत क्षेत्रीय दलों से भी ज्यादा खराब है, ऐसे में कांग्रेस के विधायक पार्टी से दूर जा रहे हैं तो इसमें दूसरे दल कर भी क्या सकते हैं। वह तो भला हो कांग्रेस के नेताओं का, जो गुजरात के विधायकों को बेंगलुरु ले गए, अन्यथा यह तय था कि कांग्रेस के और भी विधायक पार्टी छोड़ने के लिए तैयार बैठे थे। कांग्रेस खुद इस बात से डर गई थी कि उसके विधायक गुजरात में रहेंगे तो पार्टी छोड़ सकते हैं। इसलिए ही उन्हें बेंगलुरु ले जाया गया।
वास्तव में वर्तमान की राजनीति का अध्ययन किया जाए तो कांग्रेस की राजनीति करवट लेती हुई दिखाई दे रही है। उस करवट की दिशा और दशा क्या होगी, यह अभी से नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरुर लगता है कि कांग्रेस की इस करवट बदलती राजनीति में उथल पुथल का खेल लम्बे समय तक चलता हुआ दिखाई देगा। ऐसे में कांगे्रस का भविष्य किस करवट बैठेगा, यह आने वाला समय बता देगा।
-सुरेश हिन्दुस्थानी
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