वेद और गीता का शिक्षा में समावेश

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हम सब हमारी संस्कृति ,सभ्यता और जीवन दर्शन बताने वाले आधार आध्यात्मिक ग्रंथों वेद, गीता आदि की चर्चा तो खूब करते है लेकिन क्या कभी किसी ने ये सोचा है कि आज के बदलते दौर में स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भी इसकी शिक्षा देनी चाहिए? शायद आज तक ऐसा चिंतन नहीं हुआ होगा, लेकिन अब केंद्र सरकार और शिक्षा मंत्रालय की पहल से स्कूली विद्यार्थियों को गीता और वेदों का ज्ञान मिलेगा।

दरअसल,हाल ही में केंद्र सरकार ने एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के जरिए श्रीमद भगवद गीता और वेदों की शिक्षा देने का निर्णय किया है। निर्णय के अंतर्गत एनसीईआरटी की कक्षा छह और सात की पाठ्यपुस्तकों में वेदों का ज्ञान और श्रीमद भगवद गीता के संदर्भ शामिल किए जाने चाहिए, जबकि कक्षा 11 और 12 की वरिष्ठ कक्षाओं की पाठ्यपुस्तकों में इन ग्रंथों के अर्थ सहित श्लोक शामिल किए जाने चाहिए। चूंकि सरकार ने यह लक्ष्य सुनिश्चित किया है कि वैश्विक स्तर पर भारतीय ज्ञान प्रणाली का उन्नयन किया जाना चाहिए। 2020 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) में भारतीय ज्ञान प्रणाली (आईकेएस) प्रभाग की स्थापना भी इसी उद्देश्य से की गई।

वहीं राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2022 में पैरा 4.27 भारत के पारंपरिक ज्ञान को संदर्भित करता है जो उपयोगी है और सभी के कल्याण के लिए प्रयास करता है। लिहाजा भारत को इस शताब्दी में भारतीय ज्ञान प्रणाली के माध्यम से नॉलेज पावर बनने के लिए अपनी विरासत को समझना होगा और इसके बाद दुनिया को अपनी संस्कृति और सभ्यता के पैमाने पर काम करने का ‘भारतीय तरीका’ सिखाना जाना चाहिए। यह सर्वविदित और सर्वमान्य है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता में वेद और गीता आधार स्तंभ रहे हैं।शिक्षा का उद्देश्य कभी भी किताबी ज्ञान देना नहीं है। शिक्षा उच्च मानवीय मूल्यों, सकारात्मक सामाजिक दृष्टिकोण, मानसिक और नैतिक उन्नति, अधिकारों और कर्तव्यों को प्रदर्शित कर सही अर्थ में मनुष्य के निर्माण में सहायक होती है। और यह सीख सबसे पहले विद्यार्थियों को इसलिए दी जाती है क्योंकि यही देश की नींव होती है जो देश के भविष्य का निर्धारण करते हैं।

भगवद्गीता की शिक्षा: गीता में श्रीकृष्ण का यह मन्तव्य है कि व्यक्ति को शिक्षित करके इतना ज्ञानी बना देना चाहिए कि उसका अनुसरण सब करें तथा उनका नेतृत्व सब सम्मति से स्वीकार करें। यथा, गीता का प्रमुख शैक्षिक उद्देश्य आध्यात्मिक विकास के द्वारा समभाव को प्राप्त करके सर्वत्र समत्व का दर्शन करना है। जिस चारित्रिक पवित्रता एवं आध्यात्मिक, नैतिक दृष्टि की आवश्यकता है उसका वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में प्राप्त होता है।दूसरा,श्रीमद्भगवद्गीता आत्मनिर्धारणवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करती है। इसमें मनुष्य स्वयं अपने विचारों को प्रबल कर लक्ष्य प्राप्त करता है। गीता में संसार की सत्यता तथा असत्यता के बोध का विराट स्वरूप दिखाई देता है।श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा वैयक्तिक स्वतन्त्रता और राजनीतिक आदर्श संप्रत्यय की संपोषक है,जिसके मूल में कर्म और लोक संग्रह की भावना है। अपने व्यक्तिगत हितों को समष्टिगत हित में समाहित कर देना कर्म सिद्धान्त का प्रतिमान है। लिहाजा गीता के शैक्षिक उद्देश्य आज के परिवेश में पूर्णरूपेण अनुशीलनीय, ग्रहणीय एवं आचरणीय हैं तथा हमारे लिए ये बहुत ही मूल्यवान,आवश्यक एवं प्रासंगिक हैं।

भगवद्गीता का जीवन दर्शन : गीता के हर शब्द में निहित तर्क और ज्ञान इसे एक कालातीत मार्गदर्शक बनाते हैं।भगवद्गीता के चिरयुवा मार्गदर्शक सिद्धांतों को समझने से हमें रोजमर्रा की जिÞंदगी कैसे और क्यों है, इस बारे में गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।भगवद गीता हमारी समृद्ध संस्कृति और परंपरा से परिचित कराती है।इसके श्लोकों का अनुशीलन करने से हमें रोजमर्रा की जिंदगी की विभिन्न समस्याओं का समाधान खोजने में मदद मिल सकती है।भगवद गीता पढ़ने से हमें जीवन की सच्चाई का पता चलता है और हमें अंधविश्वास और झूठी मान्यताओं से मुक्ति पाने में मदद मिलती है।इससे प्राप्त ज्ञान हमारे संदेहों को दूर करता है और हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाता है।भगवद गीता हमें हमारी समृद्ध संस्कृति और परंपरा से परिचित कराती है।

गीता की शिक्षा हमें कार्य करने से पहले अच्छी तरह से सोचने के लिए कहती है। गीता का सर्वाधिक स्वीकार्य संदेश निष्काम कर्म है जिसमें कर्म को पूजा की तरह माना जाता है और कर्म फल की निश्चिंतता का पालन किया जाता।इसके साथ ही यह हमें किसी कार्य को करने से पहले अच्छी तरह से सोचने की भी सीख देती है।इसके इतर इसमें अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से धार्मिक सहिष्णुता की भावना को प्रस्तुत किया गया है जो भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। ऐसे में श्रीमद् भगवदगीता ज्ञान मानव के लिए, उनके जीवन में सही मार्गदर्शन देते हुए सही राह दिखाता है। यथा, गीता हिंदू धर्म, संस्कृति और सभ्यता का आधार ग्रंथ है।

वेदों का शिक्षा दर्शन और विद्यार्थी: यूनेस्को ने वेद को अंतरराष्ट्रीय धरोहर के रूप में चुना है। आज दुनिया के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में वेदों का अध्ययन चल रहा है। यह हमारा ज्ञान भंडार है। लिहाजा वेदों के ज्ञान दर्शन का प्रचार प्रसार हो, इन पर शोध अनुसंधान हो, इस दिशा में कार्य किया जाना चाहिए। ताकि भारत का यह ज्ञान भंडार पूरी दुनिया का मार्गदर्शन कर सके। वैदिक शिक्षा और दर्शन कई मायनों में अहम है। जहां तक विद्यार्थियों में वेदों के ज्ञान के प्रसार की बात है तो यह उनके आदर्श नैतिक चरित्र के निर्माण का उच्चतम और उत्तम माध्यम है। वेद विद्यार्थियों के चरित्र का विकास करने में सहायक है।साथ ही जीवन में बाहरी अनुशासन के साथ-साथ आंतरिक अनुशासन को महत्व देते हैं। वेद शिक्षण से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्तित्व का विकास सम्भव होता है।

यह आध्यात्मिक और मानसिक चेतना भी जागृत करते हैं जिससे आंतरिक जगत का विकास होता है। चूंकि वैदिक कालीन शिक्षा में विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करना, शिक्षा का एक आवश्यक उद्देश्य माना जाता था इसीलिए वैदिक गुरुकुल की शिक्षा में चरित्र निर्माण पर अत्यधिक बल दिया जाता था। इस कार्य के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, पाठ्य पुस्तकों में सदाचार के उपदेशों का समावेश, आचार्यों के द्वारा सदाचार के उपदेशों को सुनने, राष्ट्र के महान् पुरुषों के आदर्शों की विद्यार्थियों के सामने पुनरावृत्ति की जाती थी तथा छात्रों के चरित्र का निर्माण करने के लिए उपयुक्त वातावरण सृजन किया जाता था। वेदों का पहला महत्वपूर्ण पक्ष हैझ्र व्यक्तित्व का विकास करना।वैदिक शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व निर्माण पर विशेष बल दिया जाता था।व्यक्तित्व में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मसंयम, न्याय, विवेक, कुशल वक्ता होना, वाद-विवाद करने की योग्यता होना, आदर्श चरित्रवान होना आदि गुण आवश्यक समझे जाते थे। ये सब जो गुण बालकों में लाये जाते थे इनका केवल सैद्धान्तिक पक्ष ही महत्त्वपूर्ण नहीं था बल्कि क्रियात्मक पक्ष को भी महत्त्व दिया जाता था। दूसरा प्रमुख पक्ष है, नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करने योग्य बनाना ।वैदिक शिक्षा बच्चों को स्वार्थरहित होकर दूसरों के लाभों को ध्यान में रखकर दी जाती थी। बालकों को इस बात का बोध कराया जाता था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज में ही रहकर अपना जीवन व्यतीत करना होता है।

व्यक्ति को अपने समाज तथा घर, परिवार और समाज के प्रति क्या उत्तरदायित्व होते हैं आदि बातों का ज्ञान कराया जाता था। गुरुकुल की शिक्षा समाप्त करके जब शिष्य अपने गुरुदेव से अलग होने लगता था तो गुरु उसे अतिथि सत्कार, दीन-दुखियों की सहायता तथा समाज सेवा आदि के उपदेश देकर भविष्य में अच्छे कार्यों को करने का आदेश देते थे। यथा, यह बात एकदम स्पष्ट है कि वैदिक काल में बालकों के सामाजिक तथा नागरिक भावना के विकास पर भी ध्यान दिया जाता था। तीसरा प्रमुख सोपान है -सामाजिक कुशलता का विकास करना। बालक को समाज में रहकर अपना जीवन सुखपूर्वक बिताने की भी शिक्षा दी जाती थी। प्राचीन भारतीय शिक्षा ही मानवीय और नैतिक मूल्यों की स्थापना का सशक्त माध्यम है।इसलिए पाठ्य पुस्तकों में हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रंथों को शामिल करना भौतिकवादी और भोगवादी युग को एक नई दिशा देने की ओर महत्वपूर्ण पहल साबित होगी। (यह लेखक के निजी विचार हैं)

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