मानवता को शर्मसार करती रैगिंग की घटनाएं

Ragging

यूपी के जनपद इटावा के सैफई मेडिकल विश्वविद्यालय से रैगिंग की शर्मनाक खबर सामने आई है। रैगिंग के चलते डेढ सौ छात्रों के सिर मुंडवा दिए गए। रैगिंग की खबर कैम्पस की चहारदीवारी से बाहर निकलते ही, सैफई से लखनऊ शासन तक हडकंप और खलबली मच गई। वो अलग बात है कि कैरियर के डर के चलते छात्रों ने पुलिस और कुलपति के सामने किसी की शिकायत नहीं की। लेकिन एक साथ सौ से अधिक छात्रों का सिर मुंडाना और हॉस्टल से कक्षा और कैंटीन तक सिर झुकाकर चलना, सारी कहानी बयां करता है। रैगिंग की खबर सहारनपुर में शेखुल हिंद मौलाना महमूद उल हसन मेडिकल कॉलेज से भी आ रही है।

पिछले साल भी शेखुल हिंद मौलाना महमूद उल हसन मेडिकल कॉलेज में रैगिंग का मामला प्रकाश में आया था। सीनियर छात्रों ने 2018 बैच के 40-45 छात्रों के बालों को गलत तरीके से काट दिये थे। रैगिंग केवल यूपी ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। रैगिंग के एक केस में हिमाचल के एक मेडिकल छात्र अमन काचरू ने आत्महत्या कर ली थी, नतीजे में दोषी सीनियर्स को जेल जाना पड़ा। मुद्दा देश भर में मशहूर हुआ पर ऐसा नहीं कि इससे रैगिंग रुक गई हो।

अब तो आए दिन ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं, जिनमें विद्यार्थी रैगिंग की वजह से तनाव और अवसाद का दंश झेल रहे हैं। भारत में रैगिंग का इतिहास डेढ़ सौ से दो सौ वर्ष पुराना है। रैगिंग का जन्म यूरोपीय देशो में हुआ था। अमेरिकी अंग्रेजी में इसका अर्थ मजाक है। सेना से ये प्रथा पब्लिक स्कूलों, विश्व विद्यालायों, मेडिकल, इंजीनियरिंग व तकनीकी शिक्षण संस्थानों में घुसपैठ कर गई। सातवें दशक में विश्व विद्यालयों की धड़ाघड़ स्थापना होने के वक्त ही रैगिंग भारत में प्रचलित हुई।

सीनियर छात्र नये छात्रों को तंग करना अपना संवैधानिक अधिकार समझते हैं। ड्रेस कोड, अश्लील फूहड़ मजाक, दिअर्थी शब्दावली का प्रयोग व वातार्लाप, ऊट-पटांग हरकतें, किसी अनजान लडकी को प्रोपोज करना, नशे की हालत में ड्राइविंग के लिए मजबूर करना, हास्टल रैगिंग आदि रैगिंग के घिनौने रूप हैं। नया सत्र शुरू होते ही सीनियर छात्रों को कालेज में नये जन्तु नजर आते हैं। इस दौरान अगर आपको कालेज जाने का अवसर मिले तो सीनियर व जूनियर को पहचानने में आपको ज्यादा मशक्कत नहीं करनी होगी।

प्रोफेशनल पाठयक्रम वाले संस्थानों यथा मेडिकल, इंजीनियरिंग, तकनीकी शिक्षा एवं मैनजमेंट कालेज में रैगिंग सबसे अव्वल नम्बर पर होती है। साल 2017 में एक सर्वे के अनुसार भारत के लगभग 40 फीसदी छात्रों को किसी न किसी रूप में रैगिंग और धमकाने का सामना करना पड़ा। जिसमें से यह चिकित्सा और इंजीनियरिंग कॉलेजों में इसका प्रकोप ज्यादा है। पहले रैगिंग में केवल लड़के ही ज्यादा हिस्सा लिया करते थे लेकिन अब लड़कों से ज्यादा लड़कियां हिस्सा लेती है। यह आंकड़े बेहद चैंकाने वाले हैं क्योंकि यह डाटा रैगिंग के खिलाफ सख्त कानून बनने के बावजूद आया है।

18 अप्रैल 2012 से लेकर 23 अगस्त 2019 तक लगभग सात सालों में रैगिंग की 4893 शिकायतें सामने आईं हैं। रैगिंग की 105 शिकायतें अभी कॉल सेंटरों में दर्ज हैं तो 6 मामले मॉनिटरिंग एजेंसी के पास लंबित हैं। वहीं 13 केस यूजीसी के पास चल रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पिछले सात साल में 54 छात्रों ने रैगिंग की वजह से अपना जीवन ही खत्म कर लिया। रैगिंग के खिलाफ बनाए गए एंटी रैगिंग कॉल सेंटर में दर्ज कराए गए केसों के आधार पर देखा जाए तो 11 सालों में कुल 6,187 केस दर्ज हुए

2018 में सबसे ज्यादा केस (1,078) दर्ज हुए। 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार रैगिंग के कारण शारीरिक रूप से घायल छात्रों के मामलों की संख्या 42 थी और इसी वर्ष 7 छात्रों ने रैगिंग से अपनी जान तक गंवा दी। और प्रतिवर्ष ये आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। राज्यवार रैगिंग के स्तर को देखा जाए तो सबसे ज्यादा आबादी वाला उत्तर प्रदेश इस मामले में सबसे खराब राज्य साबित हुआ। पिछले 10 सालों में यूपी में कुल रैगिंग के 1,078 मामले दर्ज हुए। 2018 में सबसे ज्यादा 180 मामले सामने आए। पश्चिम बंगाल का नंबर इसके बाद आता है और यहां पर 10 सालों में 721 मामले दर्ज हुए, जिसमें 119 मामले 2018 में सामने आए थे।

रैगिंग भारतीय शिक्षा संस्थानों की कड़वी सच्चाई है। लगभग हर छोटे-बड़े कॉलेजों में किसी न किसी तरीके से रैगिंग होती है। बावजूद इसके कालेज प्रशासन घटनाओं का सारा प्रयास घटनाओं को छुपाने, ढकने और नकारने का होता है। एमसीआई ने सैफई मेडिकल कॉलेज प्रबंधन से रैगिंग की घटना को लेकर कारण बताओ नोटिस जारी किया है। वहीं सहारनपुर के शेखुल हिंद मौलाना महमूद उल हसन मेडिकल कॉलेज में रैगिंग की बात सामने आने पर कालेज प्रशासन ने रैगिंग के आरोपी छह छात्रों को तीन महीने के लिये निलबिंत कर दिया है। कालेज प्रशासन बदनामी व तमाम तरह की बंदिशों से बचने के लिये मामला छुपाने में ज्यादा ऊर्जा खपाता है। कालेज प्रबंधन की यही मनोवृति रैगिंग करने वालों का हौसला बढ़ाती है।

1997 में तमिलनाडु में विधानसभा में पहला एंटी रैगिंग कानून पास किया गया। उसके बाद साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने रैगिंग पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया। समस्या के विकराल स्वरूप को देखते हुए ही अधिकांश राज्यों ने रैगिंग को प्रतिबंधित किया है। सुप्रीम कोर्ट के नियम के मुताबिक, रैगिंग की सूचना मिलने पर समस्त संस्थान प्रशासन को ही दोषी माना जाएगा। विद्यालयों की आर्थिक सहायता रोकी जायेगी संस्थान की मान्यता भी समाप्त की जा सकती है।

रैगिंग शैक्षणिक संस्थानों में एक ऐसी बीमारी है जिसका लंबे समय से इलाज तो किया जा रहा है, लेकिन पूरी तरह से खत्म नहीं हो सकी है। इस दिशा में अभिभावकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। कालेज स्तर पर परिचय के नाम पर होने वाली रैगिंग को रोकने के लिए परिचय मिलन समारोह आयोजित किये जाने चाहिए। इस कार्य में सीनियर छात्रों व छात्र संगठनों का सहयोग भी लिया जा सकता है। स्वयं छात्रों को भी आगे आकर इस संबंध में ठोस व कारगर कदम उठाने होंगे। ये बीमारी या क्रूर प्रथा तभी समाप्त होगी जब तथाकथित परिचय के नाम पर होने वाली रैगिंग में छात्र खुद भाग लेना बंद करेंगे। तथा रैगिंग में शामिल होने वाले छात्रों का सामाजिक बहिष्कार व विरोध वह करेंगे।

वहीं यूजीसी व मान्यता प्रदान करने वाली दूसरी संस्थाओं को भी उन शिक्षण संस्थानों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए जो अपने यहां रैगिंग रोकने में नाकाम रहे हों। वास्तव में, यहां सवाल एक मासूम जिंदगी का न होकर देश के स्वर्णिम भविष्य का है। और छात्र रूपी भविष्य को सुरक्षित रखना हम सब की नैतिक व सामाजिक जिम्मेदारी है। वरना कल-आज-कल की परंपरा की सजीव संस्थाएं शिक्षा व ज्ञान के केंद्रों के स्थान पर कसाईघर बन जायेंगे, जहां घुसने से पूर्व नये छात्र कई बार सोचा करेंगे। हमें देश के शिक्षण संस्थानों से रैगिंग के इस रोग को उखाड़ फेंकना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पाये, तो शिक्षा भलाई का एक स्रोत बनने की जगह हमारा नुकसान ही करेगी।

आशीष वशिष्ठ