साल 1858 में जून का 17वां दिन था जब खूब लड़ी मदार्नी, अपनी मातृभूमि के लिए जान देने से भी पीछे नहीं हटी।(Jhansi ki Rani)
‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’’ अदम्य साहस के साथ बोला गया यह वाक्य अब तक हमारे कानों में गूंज रहा है। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत के 1857 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं में से एक रानी लक्ष्मीबाई को देश का बच्चा-बच्चा जानता हैं। वो वीरता, देशभक्ति और सम्मान का प्रतीक हैं। झांसी की रानी ने देश में महिलाओं की पारम्परिक छवि को बदल दिया था, उन्होंने 18वीं शताब्दी में महिला सश्क्तिकरण की एक नई परिभाषा रच दी थी।
इस वीर रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को बनारस के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ। उन्हें मणिकर्णिका नाम दिया गया और घर में मनु कहकर बुलाया गया। 4 बरस की थीं, जब मां भागीरथी बाई का निधन हो गया। पिता मोरोपंत ताम्बे, बाजीराव के छोटे भाई चिम्माजी अप्पा के एक सेवक थे।
रानी लक्ष्मी बाई और 1857 स्वतंत्रता संग्राम
1857 की इस क्रांति के इस चरण को झांसी के किले में रानी के साथ ही अपनी आंखों से देखने वाले मराठी लेखक विष्णु भट्ट गोडसे ने अपनी किताब में ये सब लिखा है। लगभग 12 दिन तक चली इस लड़ाई में वो झांसी के किले में रहकर इस रोंगटे खड़े करने वाली घटना के साक्षी बने। अपने समय की ये इकलौती किताब है जो किसी भारतीय ने लिखी है। गौरतलब है कि झांसी की रानी को अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति में लड़ने वाला ‘‘इकलौता मर्द’’ बताया था।
राजा का देहांत होते ही अंग्रेजों ने चाल चली और गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य के पैर पसारने के लिए झांसी की बदकिस्मती का फायदा उठाने की कोशिश की। अंग्रेजों ने दामोदर को झांसी के राजा का उत्तराधिकारी स्वीकार करने से इनकार कर दिया और झांसी का किला खाली करने को कहा। अंग्रेजों की मंशा थी कि वो ये कहकर झांसी हड़प लेंगे कि इसका कोई उतराधिकारी नहीं हैं।
झांसी की लड़ाई (सन् 1857-1858)
झांसी के महल को ना छोड़ने के कारण झांसी ब्रिटिश शासन के लिए विद्रोह का केंद्र बिंदु बन गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी किसी भी तरह झांसी के महल, किले पर कब्जा करना चाहती थी। रानी लक्ष्मी बाई इस बात को पहले से ही जानती थी इस लिए उन्होंने अपनी मजबूत सेना तैयार करनी शुरू कर दी थी। इस सेना में महिलाओं को भी लिया गया था और उन्हें भी युद्ध के लिए तलवारबाजी, घुड़ सवारी का प्रशिक्षण दिया गया था।
सितम्बर से अक्तूबर 1857 के बिच झांसी पर पड़ोसी राज्यों जैसे ओरछा तथा दतिया ने भी कब्जा करने की कोशिश की पर रानी लक्ष्मी बाई के साहस और सेना ने उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। उसके बाद जनवरी 1858 में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर आक्रमण किया। झांसी का युद्ध लगभग 2 सप्ताह तक चला परन्तु अंत में ब्रिटिश सेना ने झांसी के राज्य को कब्जे में कर लिए और घेर लिया। मजबूर हो कर झांसी की रानी को पुत्र दामोदर राव को वहां से लेकर किले को छोड़ना पड़ा।
नहीं छोड़ी झांसी, तैयार किये 1400 सैनानी
रानी लक्ष्मीबाई झांसी ना छोड़ने की जिद्द पर अड़ी रही और लक्ष्मीबाई ने 1400 विद्रोहियों की सेना तैयार की जिसमें महिलाएं भी शामिल थी, उनके सहयोगियों में मुख्यत: गुलाम गॉस खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुंदर-मुन्दर, काशी बाई, लाल भाऊ बक्षी, मोती बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह जैसे नाम शामिल थे। वास्तव में 10 मई 1857 को जब लक्ष्मीबाई सेना इक्कट्ठी कर रही थी तब मेरठ में सैन्य विद्रोह हो गया, जिसमें बहुत से विद्रोही, जिनमे महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे मारे गए। इसी दौरान लक्ष्मीबाई को ये आदेश मिला कि वो राज्य को अंग्रेजों को सौंप दे।
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विवाह और राजा गंगाधर की मृत्यु
सन् 1850 में मणिकर्णिका का विवाह झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नेवलकर से हुआ और देवी लक्ष्मी पर उनका नाम लक्ष्मीबाई पड़ा। बेटे को जन्म दिया, लेकिन 4 माह का होते ही उसका निधन हो गया। राजा गंगाधर ने अपने चचेरे भाई का बच्चा गोद लिया और उसे दामोदार राव नाम दिया गया। 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर का निधन हो गया। यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया।
रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु
किले को छोड़ने के बाद रानी लक्ष्मी बाई ने कालपी में शरण लिया। वहां उनकी मुलाकात तात्या टोपे से हुई। रानी लक्ष्मी बाई की सेना और तात्या टोपे की सेना ने मिलकर ग्वालियर के एक किले को कब्जे में कर लिया। 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मी बाई वीरगति को प्राप्त हो गयी। उसकी कहानी स्वतंत्रता सेनानियों के आगामी पीढ़ियों के लिए एक प्रकाश स्तम्भ बन गया। साथ ही उनके अपार प्रयासों के लिए झांसी की रानी लक्ष्मी बाई को ‘भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के चिह्न’ के रूप में जाना जाता है।
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