Equal civil rights : संविधान का अनुच्छेद 44 सबसे अधिक दुष्प्रचारित हिस्सों में से एक है। इस उपबंध के साथ बहुत अन्याय हुआ है। इसमें देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनाने की बात कही गई है। सरकार से अपेक्षा की गई है कि वह पंथ, क्षेत्र, भाषा की दूसरे इस तरह का बंटवारा करने वाले आधारों की परवाह किए बगैर सभी के लिए एक जैसा कानून बनाए। ऐसी व्यवस्था बनाए जो मानवीय गरिमा का सम्मान करती हो, उसे सुरक्षा बोध दे और सभ्य समाज के मानकों पर खरा उतरे।
दुर्भाग्यवश अनुच्छेद 44 की इस पवित्र मंशा को आगे बढ़ाने के बजाए उसका हमने अपनी फितरत के मुताबिक एक हौव्वा खड़ा कर दिया। उस पर तार्किक बहस करने के बजाए उसे साम्प्रदायिक रूप देकर अछूत बना दिया। सुप्रीम कोर्ट का आग्रह बेकार गया। अदालत के निर्देशों की हेठी की गई। यह दस्तूर आज भी कायम है। इस मामले में तो हम लोकशाही की महान परम्पराओं से भी मुंह चुराने लगते हैं। इस विषय पर स्वस्थ बहस करने के बजाए इसके प्रस्तावकों की लानत सलामत करने लगते हैं और उसे तब तक जारी रखते हैं जब तक कि सामने वाला थक हार कर बैठ न जाए। वैसे तो हमारे देश में अधिकतर मामलों में एक जैसा कानून लागू होता है। Equal civil rights
जमीन की खरीद फरोख्त, किराएदारी और दीगर दीवानी मामलों में आजादी के पहले से ही एक जैसा कानून लागू होता है, लेकिन विवाह, उत्तराधिकार, वसीयत, दत्तक ग्रहण जैसे मामलों में आजादी के पहले से ही अलग-अलग सम्प्रदायों के लिए अलग-अलग कानून रहे हैं। संविधान निमार्ताओं ने महसूस किया कि विवाह और भरण पोषण से जुड़े मामलों का सम्बन्ध किसी पूजा पद्धति से नहीं है, बल्कि इसका सम्बंध इन्सानियत से है।
निस्संतान व्यक्ति यदि किसी बच्चे को गोद लेकर अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता है या उससे उसको सुरक्षा बोध का अहसास होता है, तो उससे किसी पूजा पद्धति की अवमानना कैसे हो सकती है। यदि किसी कानून से किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिलती है या पति से अलग होने या पति के नाराज होने के बाद उसे दर-बदर भटकने के बजाए यदि गुजारे-भत्ते की व्यवस्था की जाती है तो इसमे उसका धर्म कहां से आड़े आता है। महिला-पुरुष के वैवाहिक सम्बन्धों में यदि समानता सुनिश्चित की जाती है तो इससे किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मिन्दगी नहीं, अपितु गर्व होना चाहिए।
आजादी के बाद इस दिशा में सकारात्मक पहल की गई। समानता के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए पारम्परिक हिन्दू विधि में व्यापक परिवर्तन किए गए। पहले, पुरूष एक से अधिक शादियां कर सकता था, वहीं हिन्दू विवाह अधिनियम के जरिए उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। पति-पत्नी को विवाह विच्छेद करके सम्मान पूर्वक एक दूसरे से अलग रहने का अधिकार दिया गया। महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा के मद्देनजर उन्हें भरण-पोषण का अधिकार दिया गया पिता की सम्पत्ति में बेटियों को भी अधिकार देने का परम्परा की शुरुआत हुई। सन्तान को गोद लेने के मामलों में भी पति के एकाधिकार को तोड़ते हुए महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश की गई।
इनका सकारात्मक पहलू यह रहा कि हिन्दू कानून में किए जाने वाले सुधार दूसरे सम्प्रदायों में पहले से ही थे। मसलन, मुस्लिम कानून में बेटियों का उत्तराधिकार पहले से ही था। ईसाई कानून में पहले भी पुरुष को एक ही पत्नी रखने का अधिकार था। हिन्दू कानून में किए गए सुधारों में पारम्पारिक विधि की जगह मानवाधिकारों और समानता के सिद्धान्तों को तरजीह दी गई, लेकिन वोट बैंक खिसकने की स्वार्थी सोच के कारण दूसरी जगहों पर ऐसा नहीं हो सका और उन्हें बेहतर होने के मौके से लगातार वंचित रखा गया। संविधान का अनुच्छेद 44 और अदालतों के कई निर्देश भी इस सोच पर बेअसर रहे।
आधुनिक सोच का लाभ केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलम्बियों को भी हासिल हो इसके लिए अदालतें लगातार कोशिश करती रही हैं। मौहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो (1985) केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि यह अत्यन्त खेद का विषय है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में तय की गई राज्य की जिम्मेदारी अब निर्जीव शब्द समूह का संग्रह मात्र बन कर रह गई है।
सरकारी उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा कि मुस्लिम समाज को इस मामले में पहल करने की जरूरत है, ताकि प्रगति की दौड़ में वे दूसरों से पीछे न रहें। हैरानी की बात यह है कि शाहबानो के जिस मुदकमे में सुप्रीम कोर्ट ने लोगों से इस दिशा में आगे बढ़ने की पहल का आह्वान किया, उसके दुष्प्रचार ने समान नागरिक कानून की पहल को सबसे मर्मातंक चोट पहुंचाई ।
शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजर-बसर के लिए कुछ धनराशि तय की। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 का क्रियान्वयन करते हुए इसे अन्जाम दिया गया और लोगों को आगे बढ़कर इस मुहिम को मूर्तरूप देने का आह्वान किया गया। परिणाम इसका ठीक उल्टा हुआ। इसे मुसलमानों के धार्मिक मामलों में दखलंदाजी के रूप में प्रचारित किया गया। निहित हितों के संरक्षण हेतु कुछ लोगों ने इसे पूरी कौम की अस्मिता पर खतरा करार कर दिया।
राजीव गांधी की प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार भी उस वाग्जाल की आंधी का सामना नहीं कर सकी। उन्होंने मोहम्मद आरिफ खान जैसे प्रखर वक्ता को इसका उत्तर देने के लिए आगे किया, किन्तु सब बेकार रहा। सरकार को झुकना पड़ा। कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को गुजारे भत्ते के अधिकार से वंचित करना पड़ा। आरिफ खान जैसे व्यक्ति के राजनैतिक करियर को ग्रहण लग गया। संविधान की पराजय हुई और मानवता तथा समानता के उन सिद्धान्तों की बलि दी गई, जिसकी बुनियाद पर इस्लाम की स्थापना हुई थी। संदेश यह गया कि अब समान नागरिक कानून के लिए पहल मत करना।
शाहबानो प्रकरण के बाद सरला मुदगल (1995) तथा लिली थामस (2000) जैसे कई प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक कानून के नहीं होने के दोषों को उजागर करते हुए इसका तुरन्त क्रियान्वयन करने का निर्देश दिया। वैवाहिक मामलों में वैयक्तिक विधि के दुरुपयोग से विचलित होकर अदालत ने कहा कि अब तो इसका दुरुपयोग कानून को धोखा देने के लिए होने लगा है।
जब वैवाहिक साथी से छुटकारा पाना हो तो कुछ समय के लिए अपना धर्म बदलकर दूसरी शादी कर ली, क्योंकि दूसरे धर्म से जुड़े कानून में उसे मान्यता दी गयी है। उसके बाद अपनी मर्जी से तलाक देकर उस महिला से छुटकारा पा लिया क्योंकि उस धर्म का कानून इसकी इजाजत देता है। सुप्रीम कोर्ट और दूसरे विद्धानों ने इसी कमी की ओर बार-बार इशारा किया, लेकिन हमारे राजनैतिक नेतृत्व के ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ा। अब तक ढाक के वही तीन पात रहे, क्योंकि वे शाहबानो प्रकरण से अभी भी सहमे हुए थे। Artical Hindi
सेवानिवृत न्यायमूर्ति मारकण्डेय काटजू ने अपने बयान में समान नागरिक कानून की वकालत करके संविधान के अनुच्छेद 44 और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया है। इसके पहले अन्य विद्ववानों ने भी इसकी वकालत की है। न्यायामूर्ति मुहम्मद करीम छागला ने मोती लाल नेहरू व्याख्यान मामले में, प्रोफेसर ताहिर महमूद ने अपनी पुस्तक मुस्लिम पर्सनल ला (1977) में तथा न्यायमूर्ति एम.यू. बेग ने इम्पेंक्ट आफ सेक्यूलरिज्म (1973) में भी संविधान के अनुच्छेद 44 को अमली जामा पहनाने का आह्वान किया, किन्तु शाहबानो प्रकरण के दु:स्वप्न से अभी भी कोई उबरने को तैयार नहीं है। समाज के व्यापक हितों के मद्देनजर समाज के पंथनिरपेक्ष हितचिन्तकों को आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करने जरूरत है, ताकि हम एक प्रगतिशील समाज के रूप में एकजुट हो सकें।
प्रो. हरबंश दीक्षित, प्रसिद्ध कानूनी शिक्षाविद् (यह लेखक के अपने विचार हैं)