इमरान की अमेरिका यात्रा के मायने

Imran's Journey to America

अमेरिका के विदेशमंत्री माइक पोम्पियो के इस्लामाबाद दौरे के लगभग दस माह बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद यह उनकी पहली अमेरिका यात्रा है। इस दौरान वह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलेंगे। हालांकि इमरान के अमेरिकी दौरे की कोई विस्तृत जानकारी अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है, फिर भी यह माना जा रहा है कि इस मुलाकात के दौरान दोनों नेताओं के बीच आतंकवाद, रक्षा, ऊर्जा और व्यापार जैसे मुद्दों पर चर्चा हो सकती है। कयास इस बात के भी हैं कि दोनों नेता समान क्षेत्रीय हितों से जुड़े मसलों पर भी बातचीत कर सकते हैं। पहले इमरान जून माह में अमेरिका जाने वाले थे लेकिन सरकार के बजट व अन्य घरेलू मसलों में उलझे होने के कारण इसे आगे के लिए स्थगित कर दिया गया।

देखा जाए तो इमरान खान ऐसी मुश्किल स्थिति में अमेरिका जा रहे हैं जब कि इस समय न केवल पाकिस्तान के अंदरूनी हालात बल्कि पाक-अमेरिका संबंध बहुत ज्यादा अच्छी स्थिति में नहीं है। ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से दोनों देशों के संबंधों में बदलाव आया है। अमरीका पाकिस्तान पर आतंक के खिलाफ कदम उठाने के लिए लगातार दबाव डालता रहा है। यही नहीं ट्रंप ने पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ साझी लड़ाई में दी जाने वाली अस्सी करोड़ डॉलर की आर्थिक सहायता और सैन्य सामग्री देने पर भी रोक लगा दी थी। पिछले साल मई माह में भी उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ट्वीट कर उसे दुश्मनों का घर कहा था।

दूसरी ओर पीएम बनने के बाद इमरान लगातार इस दिशा में प्रयास करते रहे कि किसी न किसी तरह ट्रंप से मेल मुलाकात कर पाक अमेरिकी संबंधों को पुन: पटरी पर लाया जाये। लेकिन व्हाइट हाऊस की ओर से इसे लगातार टाला जाता रहा है। ऐसे में अब प्रश्न यह उठ रहा है कि ट्रंप इमरान से मिलने को क्यों राजी हो गए हैं। इमरान ने सत्ता में आने के बाद आतंकवाद के खिलाफ ऐसे कौनसे कदम उठाये है कि अमेरिका पाकिस्तान से बातचीत को तैयार हो गया है। क्या इस मुलाकात के नेपथ्य में अमेरिका के अफगानिस्तान से घर वापसी की जल्दबाजी तो नहीं छिपी हुई है।

अफगानिस्तान में अभी जो परिस्थितियां बन रही हैं उसे देखते हुए तो ऐसा ही लग रहा है। साल 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान में आतंक पर युद्ध शुरू करने के लिए सेना भेजी थी। उस समय तात्कालिक राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था कि यह युद्व तब तक खत्म नहीं होगा जब तक कि वैश्विक पहुंच रखने वाले हर आतंकवादी समूह को खत्म नहीं कर दिया जाता है। इन अठारह वर्षों में अमेरिका ने न केवल अफगानिस्तान में दो खरब डॉलर गंवाएं हैं, बल्कि उसके कई हजार सैनिक भी शहीद हुए हैं। ऐसी स्थिति में वर्जनाओं को तोड़ने वाले ट्रंप तालिबान से शांति समझौते को लेकर उत्सुक नजर आए। पिछले दिनों उन्होंने अफगानिस्तान में तैनात 14000 अमेरिकी सैनिको में से लगभग आधे को वापस बुलाने की घोषणा की थी। ट्रंप जानते हैं कि पाकिस्तान तालिबानी नेताओं की रग-रग से वाकिफ है, ऐसे में वह चाहेंगे कि इमरान की सरकार शांति समझौते के मार्ग में आनेवाली रूकावटों को दूर करने में तालिबानी नेताओं का सहयोग ले। अमेरिकी दौरे से ठीक एक माह पहले ट्रंप ने इमरान को पत्र लिखकर अफगान युद्ध को समाप्त करने व तालिबान को समझौते की वार्ता की टेबल तक लाने में सहयोग करने को कहा।

सच तो यह है कि अफगानिस्तान में शांतिवार्ता का कांउटडाउन शुरू होते ही ट्रंप प्रशासन के लिए पाकिस्तान का महत्व बढ गया है। अपने सैनिकों की वापसी से पहले अमेरिका पाकिस्तान से अफगानिस्तान की सुरक्षा की गांरटी चाहता है। अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान के सहयोग के बिना अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैन्य बलों की वापसी नहीं कर सकता है। ट्रंप की दक्षिण एशियाई नीति भी कंही न कंही अमेरिकी हितों को हासिल करने में पाकिस्तान को एक अहम सहयोगी मानती है। अलकायदा और आईएसआईएस से निपटने में और क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ाने में पाकिस्तान अहम सहयोगी है। अब जिन परिस्थितियों में अमेरिका अपने सैनिको को अफगानिस्तान से वापस बुला रहा है, उसमें भी कुछ सवाल उठ रहे हंै। प्रथम तो यह कि अफगानिस्तान में अमेरिका की सीमित भूमिका के बाद क्या साल 2001 में पीछे हटने वाला तालिबान अफगानिस्तान में एक मजबूत स्थिति में उभरकर सामने नहीं आएगा। क्योंकि तालिबान के खिलाफ अमेरिका के ठोस हवाई हमलों के बावजूद आज भी अफगानिस्तान के एक बडे़ हिस्से पर तालिबान का कब्जा है।

दूसरी और इमरान भी इस बात को बखूबी जानते होंगे कि पाकिस्तान के साथ अमेरिका का रिश्ता केवल तात्कालिक परिस्थितियों से निर्मित रणनीतिक रिश्ता ही है इसलिए क्यों न परिस्थितियों का लाभ उठाया जाए । संभावना इस बात की भी है कि ट्रंप-इमरान वार्ता के दौरान पाक अधिकृत कश्मीर का मुद्दा भी उठ सकता हैं। पाकिस्तान हमेशा से यह कहता आ रहा है कि कश्मीर मुद्दे को हल करने में अमेरिका भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करे। यदि इमरान कश्मीर का मुद्दा उठाते भी हैं तो भारत के लिए कोई बहुत बड़ी चिंता वाली बात नहीं है। क्योंकि भारत ने कश्मीर मसले पर किसी तीसरे पक्षकार की भूमिका के प्रश्न पर हमेशा कड़ा एतराज प्रकट किया है। ट्रंप भी इस बात को जानते हैं।

दूसरा भारत और अमेरिका के बीच जिस तरह के व्यापारिक और सामरिक संबंध हैं उसे देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि अमेरिका कश्मीर मामले में किसी तरह की कोई टिप्पणी करेगा। हां इमरान के अमेरिकी दौरे से अफगानिस्तान में भारत की भूमिका पर जरूर प्रश्न खड़े हो गए हंै। अब भारत को यह तय करना होगा कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वह किस तरह की भूमिका अफगानिस्तान में निभा सकता है। साल 2001 में जब अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार का पतन हुआ तब भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निमाण में सहयोग की नए सिरे से शुरूआत की। अब तक भारत अफगानिस्तान में 2 बिलियन अमरीकी डॉलर(139 अरब रुपए) का निवेश कर चुका है और भारत यहां शांति, स्थिरता व तरक्की के लिए प्रतिबंद्ध है। तालिबान के मजबूत होने से इस उपमहाद्वीप पर सबसे ज्यादा नाकारात्मक असर भारत पर पड़ सकता है।

कुल मिलाकार इमरान की वाशिंग्टन यात्रा से पाकिस्तान को कोई बहुत बडा लाभ होने वाला है, इसकी उम्मीद कम ही है। फिर भी अगर वे अमेरिका को आर्थिक सहयोग व पाकिस्तान में निवेश के लिए राजी कर लेते हैं, तो यह उनकी तीन दिवसीय यात्रा का एक सुखद अंत होगा अन्यथा ट्रंप के उत्तर कोरिया के दौरे की तरह इमरान का भी यह दौरा केवल राजनीतिक स्टंट बन कर रह जाएगा।
-डॉ एन.के. सोमानी

 

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