सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट दिल्ली ने दो दिनों में जिस प्रकार देशद्रोह और बिना प्रमाण किसी को अपराधी साबित करने के संदर्भ में जो व्याख्या की है वह महत्वपूर्ण है। यह निर्णय न केवल हमारी कानून प्रणाली का मार्गदर्शन करते हैं बल्कि भारतीय संविधान में दिए मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए भी आवश्यक हैं। जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सरकार के साथ असहमति होना देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता। कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें धारा 370 के खिलाफ ब्यान देने के लिए फारुख अब्दुल्ला पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने की मांग की गई थी। यही बात भारतीय संविधान की आत्मा है।
भारत के राजनीतिक ढांचें की महत्वता ही भिन्नता में है। भारत धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा के आधार पर विभिन्नताओं से भरा हुआ है। भारत एक गुलदस्ते के रूप में है। अपने राजनीतिक मॉडल के रूप में बहु दलीय प्रणाली भी अपने-अपने विचारों के मतभेद को मजबूत लोकतंत्र का आधार मानती है। भारत का संकल्प विरोधी मत की उपस्थिति के साथ ही संपूर्ण होता है लेकिन राजनीतिक व्यवस्था में आई गिरावट के कारण कई बार संविधान की शानदार व्यवस्थाओं को ठेस पहुंचती है। पुलिस बिना सबूतों व तथ्यों के हाथापाई जैसी घटनाओं को भी देशद्रोह का मुकदमा बना देती है। विगत वर्षों में ऐसे मामले धड़ाधड़ दर्ज हुए जो न्यायलयों में खारिज हो गए।
दरअसल पुलिस की कार्यप्रणाली में राजनीतिक दखल से ऐसा होता रहा है। दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली दंगे मामले में कड़े शब्दों में यह बात कही कि 100 खरगोशों को जोड़कर एक घोड़ा नहीं बनाया जा सकता। उसी प्रकार सौ संदेह को इकट्ठा कर किसी को अपराधी नहीं साबित किया जा सकता। दरअसल यह राजनीति और पुलिस दोनों के साथ जुड़ा हुआ मामला है। पुलिस सुधारों के नाम पर समय -समय पर सरकारों ने दावे तो करती रही हैं लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात वाला होता है। दिखावे की स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधार है। भले ही निरंकुश आजादी नाम की कोई चीज नहीं होती लेकिन कम-से-कम जायज आजादी की गारंटी अवश्य होनी चाहिए।
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