पिछले पचास वर्ष के लोगों की जीवनशैली और स्वास्थ्य की आजकल खूब प्रशंसा हो रही है। हर किसी के मुंह से यह सुना जा रहा है कि हमारी पिछली पीढ़िया स्वस्थ थी और हमारे पूर्वज बेहद स्वस्थ, मजबूत और लंबे-चौड़े कद वाले थे। जब कभी गांव में एक व्यक्ति बीमार होता था तो उसकी चर्चा पूरे गांव में होने लगती थी, अब समाज में बीमारियों और मरीजों की भरमार है जिसे सामान्य बात समझा जा रहा है। यह चर्चा कोविड-19 महामारी के साथ-साथ डेंगू के प्रकोप के दौरान हो रही है। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा सहित देश के कई राज्यों में डेंगू का कहर जारी है। कई अस्पतालों में मरीजों के लिए बैड खाली नहीं मिल रहे। मरीजों के रिश्तेदार प्लेटलैट्स के लिए खूब भागदौड़ करते देखे जा रहे हैं।
डेंगू की रोकथाम के लिए मच्छर पैदा होने से रोकने के लिए सरकारी स्तर पर काफी प्रचार भी हुआ और लापरवाह लोगों को जुर्माने भी किए गए लेकिन इसे संपूर्ण स्वास्थ्य नीति नहीं कहा जा सकता। वास्तव में सरकार का पूरा ध्यान दवा मुहैया करवाने, अस्पताल में बैड बढ़ाने तक सीमित है। ऐसे दौर में घट रही रोग प्रतिरोधक क्षमता का कहीं जिक्र नहीं हो रहा। रोगों के साथ लड़ने की क्षमता को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। इस बारे में कोई ठोस नीति बनानी होगी, और यह हमारी विरासत के साथ जुड़ने से ही संभव है। दरअसल मनुष्य का खान-पान, हद से ज्यादा आरामदायक जीवनशैली, मानसिक तनाव सहित कई ऐसे कारण हैं, जो मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता को घटा रहे हैं।
कृषि में खाद और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग और प्रदूषण मनुष्य को कमजोर कर रहे हैं। फास्ट फूड से शरीर को आवश्यक तत्व नहीं मिल पा रहे। परंपरागत खानपान को पुरानी विचारधाराओं के लोगों या पिछड़े लोगों का खाना बताया जा रहा है। लस्सी, गुड़, दूध घी की जगह साफ्ट ड्रिंक्स और जंक फूड ने ले ली है। साथ ही प्रकृति के अनुकूल खाने के नियम भी दरकिनार किए जा रहे हैं। भले ही हर साल केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजट बढ़ाया जाता है लेकिन इसमें खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और जीवनशैली गायब है। उपचार का मतलब टेस्टों और दवाओं तक सीमित हो गया है। वास्तव में मनुष्य में घट रही रोग प्रतिरोधक क्षमता चिंता का विषय है। हमें फिर से अपने परम्परागत भोजन और जीवनशैली को समझने और उसे अपनाने की आवश्यकता है। सरकारों को स्वास्थ्य नीति की समीक्षा कर ठोस निर्णय लेने चाहिए।
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