एक संत से भक्त ने पूछा- कर्म का क्या महत्त्व है? संत ने कहा की बिगड़ी हुई बात बनाने का, कर्म एक सुन्दर अवसर है। जीव जो भी क्र्रिया करता है, वह कर्म है। कर्म का स्वरूप भी व्यापक है। किसी के कर्म में स्वार्थ होता है तो किसी के कर्म में निष्काम-भाव होता है। मनुष्य को सारी प्रकृति कर्म करने का संदेश देती है। जो जैसा कर्म करता है वैसा फल पाता है। हमारे भाग्य में हमारे कर्मों का जो भी फल लिखा है, वह मिटाया नहीं जा सकता। अत: हे मानव! फल कि चिंता छोड़कर गुरू कि शरण लो और हरिनाम का सुमिरन करते हुए सत्य-मार्ग पर चलो।
जिसके जीवन में सत्य, दया और धर्म है, उसका जीवन सफल है। ईश्वर का लिखा कोई बदल नहीं सकता। जो भी प्रारब्ध में लिखा है की शरण होकर ही रहेगा। हम सबकी जीवन-यात्रा पूर्व निर्धारित है। बचपन से लेकर मृत्यु तक वही सफर तय करना पड़ता है। फिर भी ईश्वर हमें कर्मों के द्वारा गलतियों को सुधारने का मौका देते हैं। पूरे सफर के दौरान सतर्क रहने की जरूरत है। अगर प्रारब्ध बिगड़ा हुआ है तो उसे कर्म के द्वारा सुधार लो। और अगर प्रारब्ध अच्छा है तो उसे कर्म के द्वारा और अधिक श्रेष्ठ बना सकते हो। अच्छा कर्म शान्ति की ओर ले जाता है।
संत रैदास
संत रैदास काम को भगवान की पूजा मानकर पूरी लगन एवं ईमानदारी से पूरा करते थे। एक बार एक साधु रैदास के पास पहुँचे। गंगा स्रान की बात याद दिलार्ई। रैदास कुछ काम हाथ में ले चुके थे, समय पर देना था। अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा-ह्यमहात्मन, आप मुझे क्षमा करें, मेरे भाग्य में गंगास्रान नहीं है। यह एक पैसा लेते जाओ, जिसे गंगा माँ को चढ़ा देना।ह्ण साधु गंगास्रान के लिए समय पर पहुँचे। स्रान करने के बाद उन्हें रैदास की बात स्मरण हो आई।
मन-ही-मन गंगा से बोले, ह्यये पैसा रैदास ने भेजा है, स्वीकार करो।ह्ण इतना कहना था कि अथाह जलराशि से दो हाथ उभरे और पैसे को हथेली में ले लिया। साधु यह दृश्य देखकर विस्मित रह गए और सोचने लगे, ह्यमैंने इतना जप-तप किया, गंगा में स्रान किया, तो भी गंगा माँ की कृपा प्राप्त नहीं हो सकी, जबकि गंगा का बिना स्रान किए ही रैदास को अनुकं पा प्राप्त हो गई।ह्ण वे रैदास के पास पहुँचे और पूरी बात बताई। रैदास बोले, महात्म, ह्ययह सब कर्त्तव्य धर्म के निर्वाह का प्रतिफल है। इसमें मुझे अकिंचन को तप, पुरूषार्थ की कोई भूमिका नहीं।
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