बिहार में जदयू के नेतृत्व वाले गठबंधन के बिखराव की पटकथा नीतीश कुमार के शपथग्रहण करने के साथ ही लिखी जानी प्रारम्भ हो गयी थी, क्योंकि नीतीश कुमार और लालू यादव राजनीति के दो ध्रुवों की भांति थे जिनको केवल राजनीतिक परिस्थितियों ने एक दूसरे का दामन थामने पर मजबूर कर दिया था। नीतीश कुमार की छवि जहाँ सुशासन बाबू के रूप में विकसित हुई वहीं लालू यादव का अधिकांश राजनीतिक जीवन विवादों और आरोपों में घिरा रहा।
वास्तव में सशक्त और सम्भावित उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार को विपक्षी दलों के प्रस्तावित राष्ट्रीय गठबंधन के रूप में प्रधानमन्त्री पद की राह आसान दिखाई पड़ी। जिसके कारण उन्होंने विपक्षी गठबंधन का अंग बनना स्वीकार किया लेकिन विपरीत विचारों के कारण लालू और नीतीश का एक साथ चल पाना मुश्किल था। दरअसल एक दूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी रहे नीतीश और लालू यादव का यह साथ लम्बा चलनेवाला भी नहीं था। परिणामस्वरूप नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता को झटका देते हुए अपने पुराने राजनीतिक साथी भाजपा से गठबंधन कर लिया।
छवि को प्राथमिकता
आरोपों से घिरे और परस्पर विरोधी राजनीतिज्ञों से बने बेमेल विपक्षी गठ्बन्धन का अंग होने के कारण नीतीश कुमार सामाजिक और राजनीतिक तौर पर अपनी छवि को लेकर चिंतित थे। उनके लिए अपनी जनसामान्य में प्रचलित छवि को बरकरार रखना प्रथमिकता थी कि नीतीश कुमार सत्ता के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करते, और इसीलिए भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। बेदाग छवि के नीतीश, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी के विरुद्ध लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद निरंतर सवालों के घेरे में थे। स्पष्ट है कि आसानी से विकल्प उपलब्धता की स्थिति में नीतीश ने बोझ बन चुकी गठबंधन सरकार के बदले अपनी छवि को चुन लिया।
दूरियां यूँ बढ़ती गयी
दरअसल जदयू-कांग्रेस और राजद गठबंधन में विरोधाभास की स्थिति काफी पहले ही उत्पन्न हो गयी थी जब कई मुद्दों पर नितीश ने गठबंधन से अलग रुख अपनाया नीतीश ने गठबंधन के विरुद्ध जीएसटी, नोटबंदी और राष्ट्रपति चुनावों में भाजपा उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन किया।
शहाबुद्दीन आॅडियो, उपमुख्यमंत्री पर लगते भ्रष्टाचार के आरोप, लालू यादव की हठधर्मिता ने रही-सही कसर पूरी कर दी। ऐसी स्थिति में नीतीश कुमार के लिए सरकार चलाना एक दुष्कर कार्य साबित हो रहा था, जिससे मुक्त होकर पुराने और स्वाभाविक सहयोगी भाजपा के साथ जाना उन्हें बेहतर विकल्प लगा।
सुशासन और भ्रष्टाचार बने राष्ट्रीय विमर्श के मुद्दे
बिहार की राजनीतिक उठापठक के कारण सुशासन और भ्रष्टाचार देश के राजनीतिक गलियारों में मुख्य मुद्दा बना। अन्यथा ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे इस देश में साम्प्रदायिकता के अलावा कोई समस्या बची नहीं है। गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आदि समस्याओं को उठाना विपक्ष का कार्य है, परन्तु असहिष्णुता और साम्प्रदायिकता के सामने विपक्ष को आम जनता की समस्याएँ गौण नजर आईं।
वास्तव में नीतीश का विपक्षी गठबंधन को छोड़ना, साम्प्रदायिकता विरोध के गलीचे के तले सब तरह के भ्रष्टाचार और अपराधों को छुपाने की राजनीतिक बाजीगरी के दिन लदने का संकेत है। साम्प्रदायि विरोध के नाम पर शोर मचाकर मुद्दाविहीन विपक्ष, जनता का ध्यान अपनी कमियों की ओर से भटकाए रखना चाहता है। नीतीश के इस कदम ने सुशासन और भ्रष्टाचार के विषय को जनता की चर्चा का केन्द्रीय बिंदू बना दिया है।
आत्मघात की मुद्रा में विपक्ष
भ्रष्टाचार के प्रति उदासीन कांग्रेसनीत गठबंधन ने अपना सबसे भरोसेमंद और स्वीकार्य चेहरा खो दिया है। कबूतर की भांति आँखें मूंद बैठे विपक्ष के पास अब कोई ऐसा चेहरा नहीं बचा है जिसकी राष्ट्रीय स्वीकार्यता हो। राहुल गाँधी के नेतृत्व में विभिन्न चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन किसी से छुपा नहीं है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का खाली पड़ा पद, विपक्ष की राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
आत्मघाती मुद्रा में आ चुकी कांग्रेस ने अगर समय रहते बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम को सम्भाला होता तो आज विपक्ष के पास राष्ट्रीय नेतृत्व के नाम पर एक सर्व-स्वीकार्य नेता होता। विपक्ष भले ही केजरीवाल या ममता बनर्जी को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाने का प्रयास करे परन्तु एक ओर जहाँ इनकी स्वीकार्यता नीतीश कुमार जैसी नहीं हो सकती, वहीं भानुमती के कुनबे जैसा विपक्षी गठबंधन कब बिखर जाये, इसका पता किसी को नहीं।
नये राजनीतिक क्षत्रप भी जुड़ सकते हैं भाजपा से
विपक्षी दलों द्वारा निरंतर भाजपा को राजनीतिक रूप से अछूत माना जाता रहा है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने भाजपा के विरोध को ही अपनी अस्तित्व-रक्षा का उपकरण समझा है। भाजपा के विरोध को आधार बनाकर ही कई प्रकार के गठबन्धनों के प्रयोग भारतीय राजनीति में किया गया। विपक्षी दलों द्वारा परस्पर विरोधी विचारों ओर विचारधाराओं के बेमेल गठबंधन निर्माण करने के प्रयास भी किये गये।
नीतीश का भाजपा से गठबंधन विपक्ष की गठबंधन राजनीति के लिए बड़ा झटका है जो कई अन्य राजनीतिक क्षत्रपों और क्षेत्रीय नेताओं जैसे नवीन पटनायक तथा चंद्रबाबू नायडू आदि नेताओं को भाजपा के निकट ला सकता है। अगर ऐसा हो जाता है तो विपक्ष की स्थिति काफी कमजोर हो जाएगी और अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा की राह अधिक आसान हो जाएगी।
बिहार में लालू युग का अवसान
नीतीश कुमार का लालू यादव और कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थामना न केवल राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष के लिए एक बड़ा झटका है, बल्कि क्षेत्रीय दल के रूप में भी राष्ट्रीय जनता दल के लिए बहुत ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है।
राजनीतिक आधुनिकीकरण और सोशल मीडिया के दौर में पहले ही राजद जैसे क्षेत्रीय दलों का जनाधार सिमट रहा है, ऊपर से अगर सरकार बनने की सम्भावना न हो तो परम्परागत वोटरों का एक बड़ा हिस्सा भी पार्टी से छिटक सकता है। अगर नीतीश और भाजपा का गठबंधन स्थायी स्वरुप ग्रहण कर लेता है तो निश्चित ही आने वाले वर्षों में लालू को राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा लालू परिवार अपना राजनीतिक वजूद बचा पायेगा, यह सम्भावना अत्यंत क्षीण दिखाई पड़ती है।
निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार का राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन में जाना प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा के लिए सर्वाधिक लाभदायक है। साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एकजुट होने वाले विपक्ष का तुरुप का इक्का अब भाजपानीत गठबंधन के साथ है।
नीतीश के समर्थन से प्रधानमन्त्री मोदी की स्वीकार्यता में वृद्धि हुई है। इस घटनाक्रम से जहाँ विपक्ष बिखर गया है वहीं इसका फायदा न केवल भाजपा को राज्यसभा में होनेवाला है बल्कि भाजपा के लिए 2019 के लोकसभा चुनावों की राह आसान होती नजर आ रही है। यही नहीं, बिहार की जनता के एक बड़े हिस्से को नीतीश ने भाजपा के साथ जोड़ दिया है जो आनेवाले चुनावों में भाजपा के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
-डॉ. कुलदीप कुमार मेहंदीरत्ता
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