बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के उदगम गंगोत्री थे रामचंद्र
(सच कहूँ न्यूज) कागज कलम उठाने की उम्र में कोयले फोड़ने की विवशता, शादी के बाद हाथ में सब्जी का ठेला मजबूरी को मात दे मशहूरी का नाम बने रामचंद्र। स्कूल जाते बच्चों को देख अपने छाले भरे हाथों को निहार आंखों में आंसू भर जहर का घूंट पीने वाले रामचंद कहते थे “गरीबी से बड़ा कोई पाप नहीं होता”। जनवरी माह की कड़ाके की सर्दी में सुबह चार बजे जैसे ही एक आवाज मेरे कानों में पड़ती लगता यमराज का बुलावा आग गया।
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एक मिनट में ही आवाज देने वाले के साथ चल पड़ता कोयले के ढेर पर हतोडे चलाता छाले भरे हाथों को ले घर लोटता और पैसा माँ बाप के हाथों में पहुँच जाता। हाथों के छाले सूखने से पहले एक बार फिर मेरे हाथ नए छालों से भर जाते थे। इस अंतहीन दर्द ने मुझे बागी बना दिया और बगावत ने मुझे हौसला दिया। महज नौ साल की उम्र में दिल्ली आ गया ना कोई अपना न कोई ठिकाना और भूख से जलता पेट,ऐसे में दो सूखी रोटियां पड़ी मिली जिन्हें पानी में भिगोकर रोते रोते खाता रहा और भगवान से सवाल करता रहा क्या ऐसे ही बीतेगी मेरी ज़िंदगी? जबाव में हिम्मत मिली और सिर पर सब्जी का टोकरा उठाने की नौकरी।
अच्छाई बुराई, बेचना खरीदना,मोल भाव, नगद उधार सब्जी बेचने वाले के साथ सब्जी के टोकरे तले दबा बड़े चाव से सीखता रहा। इसी बीच पैसे जोड़े और एक दिन अपना सब्जी का ठेला ले गलियों में सब्जी बेचने निकल पड़ा। याद है वो कड़ाके की सर्दी में बारिश में भीगती वो बात जो कंबल में सिकुड़ी छाते में ढकी एक औरत ने दया भाव से पूछा ठंड नहीं लगती क्या सब्जीवाले? इतना ही बोल पाया जिम्मेदारी का छाता ओढ़कर निकला हूं बहन जी, मेरी बेटियों की भूख मुझे भीगने नहीं देती, सर्दी देखूंगा तो उन्हें भूख मार देगी।
ज़िन्दगी के इस पड़ाव में मेरी हिम्मत बनकर मेरी हमसफर बन साथ चल पड़ी मेरी पत्नी नाम था अशरफी। देवी थी, मेरे हर संघर्ष की सारथी बनी वही दोस्त थी, भाई थी, सलाहकार और सहारा भी । एक दिन बोली कब तक अकेले ठेला खींचोगे? कितना कमा पाओगे? अपना काम शुरू करो, कारखाना लगाओ। दो हाथ आखिर कितना जोड़ेंगे घर के दस हाथ खाली पड़े है, इनको भी काम दो हम हाथ बटाएंगे,साथ कमायेगे। किराए के मकान टूटी छत मकान मालिक के मुकदमेबाजी के बीच स्टोव का कारखाना शुरू किया।
अशरफी के पास कुछ गहने थे उस सोने के बदले लोहे की मशीने आई और आर सी बॉन्ड की नीव पड़ी। मेरी पत्नी के साथ बेटियो ने भी हाड़ तोड़ मेहनत की कटाई, छटाई, ढलाई,रंगाई चमक चालू कोड के साथ पैकिंग और बेचने के हुनर के साथ पूरी दिल्ली की पहली पसंद बन गया आर सी ब्रांड। कुछ ही महीनो में देश प्रदेश की सीमाओं के बाहर श्रीलंका और नेपाल से भी खूब मांग आने लगी। कभी लिफाफे में राशन आता था और अब झोले में नोट आ रहे थे।
अपना घर अपना कारखाना अपने कारीगरो मजदूरों की टोली बन गई।भगवान ने मेरी सुन ली थी पर मैं अपने दुख के दिन नहीं भूला था। दस की दस बेटियो को किताब कॉपी कलम थमा स्स्कूल की राह पर बढ़ाया,कभी दुलार के कभी पुचकार कभी डांट कर तो कभी हिम्मत दे हर दिन स्कूल भेजता रहा वो क्या पढ़ती है नही पता था पर उनकी किताबो में झांकता रहता था। जब लोग बेटियो को बोझ समझते थे तब कॉलेज भेजा बोला खूब पढ़ो। पढ़ोगी तो दुनिया इज्जत देगी, अफसर बनोगी तो सब सलाम करेंगे। यह केवल कागज की किताबें नहीं सुरक्षा का छाता है इतना पढ़ो की अनपढ़ बाप का सपना पूरा हो सके।
कई लोगों ने टोका बेटियों को कालेज भेज रहे हो लोग क्या कहेंगे? लोग यह भी कहते थे बेटियां पराया धन है मैं कहता मेरा तो धन ही मेरी बेटिया है। सब सवाल करते इतनी शिद्दत से कैसे पाल लेते हो बेटियां? कुछ रिश्ते नातेदार मुझ पर तरश खा बेटियों के बदले बेटा देने भी आए,बहुतेरे गोद लेने की जिद्द भी करने आये। किसी की नही सुनी अपने कलेजे का टुकड़ा कलेजे से लगाए रखा।
धोखा हुआ जब जीवन के बीच सफर में हमसफर अलविदा कह दुनिया से दूर हो गई। सहम गया कैसे होगा कौन साथ देगा शादी विवाह कैसे होगी मुझे तो रसोई में क्या है ये भी खबर नही थी। तब छोटी बेटी महज पांच साल की थी और एक ही बेटी के हाथ पीले हुए थे। पत्नी की चिता जला मुखाग्नि दे लौटे रामचंद्र ने दसों बेटियों को एक साथ बैठा एक ही वाक्य कहा “यह तुम्हारा नहीं, बेटियों मेरा नुकसान है” उसी दिन से मां और बाप दोनों बन गए बाबूजी मां के गुजर जाने के चालिस साल तक एक एक सास अपनी बेटियों पर कुर्बान कर दी। रिश्तेदार नातेदारों से दूरियां बना ली एक रात भी घर के बाहर नहीं गुजारी जब तक चार कंधों पर नहीं सवार हुए।
आज उनकी बेटियां प्रोफ़ेसर, लेक्चरार, अधिकारी, अध्यापक,व्यवसायी बन समाज की शान है।ललिता अध्यापक 60 हज़ार अध्यपको और 30 लाख सरकारी कर्मचारियो की नेता बन संघर्ष की ज़िंदा मिशाल है। जिस दौर में बेटियों को पढ़ाना गरीबों के जेहन में भी नहीं था उस सत्तर के दशक में बेटियो को कॉलेज भेजने की सोच इस दम इस भरोसे के साथ कि मेरी बेटियां मेरा मान बढ़ाएगी। मां के गुजर जाने के बाद चलती फिरती पाठशाला, पाकशाला, संस्कारशाला बन गए थे रामचंद्र । खाना कैसे बनाना है? कपड़े कैसे पहनना है? कैसे बोलना है? कैसे चलना है सब बिटियो को उंन्होने ही सीखाया, मां का आंचल तो मासूमो से बहुत साल पहले ही दूर हो गया था।
एक आदर्श पिता शिक्षा की मशाल अक्षर का उजियारा बन बेटियो को पढ़ना, बढ़ाना, सिखाना न होता तो आज जिंदा न होती उनकी शान सम्मान बेटियां। समाज को जाने के बाद भी जीने की राह दिखाने वाले बेटियो वालो का हौसला बढ़ा गए। सच मायने में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के उदगम गंगोत्री थे रामचंद्र। उनकी ज़िन्दगी एक ज़िंदा इतिहास है देश समाज को अवश्य उनके इस जीवन पर मान होगा।
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