कोटा और कतारें भारतरीय राजनीति के लिए अभिशाप रहे हैं। जिनके चलते हमारे नेतागण लोकप्रिय वायदे करते रहे, वोट बैंक की खातिर कदम उठाते रहे और अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए मूंगफली की तरह आरक्षण बांटते रहे। यह हमारे 21वीं सदी के भारत की दशा को दर्शाता है जिसमें कोटा का तात्पर्य है कि जीत के लिए निश्चित रूप से वोट मिलना। आगामी लोक सभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने अभूतपूर्व निर्णय लेते हुए दो दिन के भीतर संविधान का 124वां संशोधन विधेयक पारित किया जिसमें सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया और इस आरक्षण का आधार परिवार की 8 लाख रूपए से कम वार्षिक आय, एक हजार वर्ग फीट से कम का घर और पांच एकड़ से कम कृषि भूमि रखी गयी।
यह अलग बात है कि इस निर्णय से गरीबी की रेखा 32 रूपए प्रति दिन से बढकर 2100 रूपए प्रतिदिन अर्थात 8 लाख रूपए सालाना पहुुंच गयी। यह कानून राजनीतिक कार्य साधकता के लिए पारित किया गया और इसका कारण मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ तथा राजस्थान में हाल में हुए विधान सभा चुनावों में उच्च जातियों की भाजपा के प्रति नाराजगी थी। विपक्षी दलों ने भी इसका समर्थन किया। किंतु इससे वे भी लाभान्वित होंगे और यदि वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के विरुद्ध माना जाता। इस कदम से सरकार सामान्य श्रेणी के लोगों को नए आरक्षण के अंतर्गत तुरंत तीन लाख रोजगार दे सकती है क्योंकि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में 29 लाख पद खाली हैं। शिक्षा क्षेत्र में 13 लाख, पुलिस में 4 लाख और रेलवे में 3 लाख पद रिक्त हैं। किंतु अगले ही दिन इस कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी कि यह कानून समानता के मूल अधिकार का हनन कर रहा है और अनुच्छेद 15 ;6द्ध और 16 ;6द्ध जोड़कर संविधान के बुनियादी ढांचे के साथ छेड़छाड़ की गयी है। इस कानून से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की परिभाषा के बारे में भी प्रश्न उठे हैं और इसका निर्णय राज्यों पर छोड़ दिया गया है।
उच्चतम न्यायालय ने इससे पूर्व 1975 में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सामान्य श्रेणी के आरक्षण को रद्द कर दिया था और कहा था कि गरीबी आरक्षण का आधार नहीं हो सकता है। 1980 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि जम्मू कश्मीर आरक्षण देने के आधार को क्षेत्रीय असंतुलन नहीं बना सकता है। इसी तरह 1992 में इंदिरा साहनी मामले में 9 न्यायधीशों की खंडपीठ ने निर्णय दिया था कि संविधान के अंतर्गत आरक्षण के लिए आर्थिक मानदंड एकमात्र आधार नहीं हो सकता है। 2006 में एम. नागराज मामले में न्यायालय ने आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को वैध ठहराया था। इसी तरह 2018 में जनरैल सिंह बनाम लक्ष्मीनारयाण मामले में 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा को वैध ठहराया गया। विभिन्न उच्च न्यायालयनों ने भी इस संबध्ां में निर्णय दिए। 2015 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण को रद्द किया और 2016 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का स्थगनादेश दिया। गुजरात उच्च न्यायालय ने भी 6 लाख से कम आय वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण रद्द किया।
2017 में केरल ने देवस्थान बोर्ड में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण दिया। अगड़ी जाति में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने का औचित्या क्या है? क्या सरकार 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा को बढाकर 60 प्रतिशत कर सकती है? 8 लाख की आय सीमा रखने पर मानदंड क्या हैं? क्या अगड़ी जातियों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग का कोई मानक है? शेष बचे 40 प्रतिशत समान्य श्रेणी के लोगों का क्या होगा? उन्हें शिक्षा और रोजगार कहां मिलेंगे? कुछ राज्यों में पहले ही आरक्षण की सीमा बढ़ा दी गयी है। तमिलनाडू में यह 69 प्रतिशत है तो बिहार और कर्नाटक में 80 प्रतिशत है। प्रश्न यह भी उठता है कि यदि अगड़ी जाति में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के कुछ लोगों को रोजगार मिल जाएगा तो उससे उनकी दशा कैसे सुधरेगी? क्या योग्य व्यक्ति को प्रवेश या रोजगार से वंचित करना उचित है? सरकार इस तरह का भेदभाव कैसे कर सकती है? क्या इस बात का आकलन किया गया है कि जिन लोगों को आरक्षण दिया गया है उन्हें लाभ मिला है या उन्हें नुकसान हुआ है?
क्या इसके परिणामों के बारे में कोई अध्ययन कराया गया है? क्या आरक्षण अपने आप में साध्य बन गया है? क्या भारत के सामाजिक ताने-बाने और सौहार्द को बनाने का उपाय आरक्षण है? राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के एक पूर्व अध्यक्ष के अनुसार राजनेताओं ने आरक्षण को सर्कस बना दिया है। आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के वोट प्राप्त करने की चाह में नेता अपने इस कदम के प्रभावों को नहीं समझ पाए हैं। समाज पहले ही जाति और पंथ के आधार पर बंटा हुआ है और अब यह गरीब और अमीर के आधार पर भी बंट जाएगा। इस अदूरदर्शी कदम से भारत के नागरिकों में खाई और बढ़Þ जाएगी। दुर्भाग्य से वास्तविकता और आभासी समाज शास्त्र के लिए समानता नहीं होती है। आरक्षण से ग्रामीण समाज में बदलाव नहीं आएगा क्योंकि उसका सामान्य ढ़ांचा अज्ञानता और अशिक्षा पर बना हुआ है और इससे वर्ग-जाति व्यवस्था बढ़ेगी। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के अनेक परिवार गरीबी में जी रहे हैं। किंतु हमें ध्यान में रखना होगा कि गरीबी परिवार स्तर पर होती है न कि वर्ग स्तर पर। अगर गरीबी का उन्मूलन करना है तो फिर किसी वर्ग के सभी गरीब परिवारों को ये सुविधाएं दी जानी चाहिए।
सामाजिक न्याय प्रदान करने की आड़ में हमारे नेता विवेकहीन तदर्थवाद अपनाते हैं और आरक्षण की घोषणा करते हैं। सच्चाई यह है कि हम आज ऐसे दुष्चक्र में फंसे हुए हैं जिसे हमारी अस्थिर और बिखरी राजनीति ने और जटिल बना दिया है और अब जाति संघर्ष नहीं अपितु वर्ग संघर्ष का खतरा पैदा हो गया है। हमारी राजनीति में वामपंथ दक्षिण पंथ के बजाय अगड़ा पिछड़ा अधिक महत्वपूर्ण बन गया है। आज हर कोई सामाजिक सौहार्द की अपनी परिभाषा दे रहा है और हमारे नेता कोटा के माध्यम से वोट प्राप्त करने की चाह में स्वयं भ्रमित हैं तथा वे मतदाताओं और इतिहास को भी भ्रमित कर रहे हैं। आज भारत को वही देश नहीं कहा जा सकता जिसे एमरसन ने मानव विचारों का शीर्ष कहा था। हमारे राजनेताओं को समझना होगा कि जाति और वर्ग की प्रतिद्धंद्धिता के आधार पर राजनीतिक सत्ता का खेल खतरनाक है और इससे सामाजिक सुधार आंदोलन निरर्थक बन जाएंगे। उन्हें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि सभी के लिए आरक्षण देने का मतलब है कि उत्कर्षता और मानकों का त्याग जो कि किसी भी आधुनिक राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है। सामाजिक न्याय एक वांछनीय और प्रशंसनीय लक्ष्य है किंतु यह औसत दर्जे के नागरिक पैदा करने की कीमत पर नहीं किया जा सकता है।
लोकतंत्र में दोगले मानदंडों या अन्य लोगों से अधिक समान की ओरवेलियन अवधारणा को कोई स्थान नहीं दिया जा सकता है। मूल अधिकारों में जाति, पंथ या लिंग को ध्यान में रखे बिना सबको समान अवसर दिए गए हैं ओर हमें इसके साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। समय आ गया है कि हमारे नेता विवेकहीन लोकपिय्र वायदों से पीछे हटें, तुच्छ राजनीति न करें और आरक्षण देने पर रोक लगाएं क्योंकि ये देश के दीर्घकालिक विकास के लिए बाधक है। उन्हें सभी को समानता के आधार पर आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। केवल आरक्षण देने से उत्कृष्टता नहीं आएगी। विशेषकर आज के प्रतिस्पर्धी वैश्विक गांव में आरक्षण के आधार पर प्रतिस्पर्धा नहीं की जा सकती। सामाजिक न्याय और समान अवसर केवल कुछ लोगों के विशेषाधिकार नहीं हैं। जाति आधारित आरक्षण पहले ही विभाजनकारी बन गया है और इसके लक्ष्य भी प्राप्त नहीं हुए हैं। हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने वाले हमारे राजनेताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे देखना होगा और इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार करना होगा। भारत की युवा पीढ़ी यह स्वीकार नहीं करेगी कि चुनावी प्रतिस्पर्धा के माध्यम से बहुमत जुटाया जाए।
पूनम आई कौशिश
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