झारखंड के अलग राज्य गठन का एक मात्र उद्देश्य यही था कि बिहार के इस पिछड़े हिस्से को विकास की रौशनी के साथ रौशन किया जाए। अफसोस नए राज्य में मुख्यमंत्री, मंत्री व आधिकारियों की फौज तो खड़ी हो गई परंतु इस पिछड़े राज्य की जनता के साथ विकास के वायदे फलित होते कहीं भी नजर नहीं आ रहे। मौजूदा भाजपा सरकार ने पिछले चार सालों में तीन अरब से अधिक राशि विज्ञापनों पर खर्च कर दी, जिस राज्य में भुखमरी के साथ मौतें होने की रिर्पोटें हों, वहां विज्ञापनों पर बेशुमार पैसा खर्च किया जाना जायज नहीं। उक्त राशि केन्द्र सरकार के विज्ञापनों पर खर्च का करीब आठवां हिस्सा है। इस तर्क में कोई दम नहीं कि सरकारी योजनाओं संबंधी जानकारी देने के लिए बड़े स्तर पर विज्ञापन देने पड़ते हैं।
जब भुखमरी, अनपढ़ता जैसी समस्याएं मुंंह फै लाये खड़ी हों तब बड़े-बड़े होर्डिगों पर लिखी बातें शोभा नहीं देती। यह कितनी शर्म की बात है कि झारखंड में पोस्टमार्टम इस बात के लिए भी होते हैं कि मृतक भूख से मरा है या बीमारी से। प्रदेश में 11 साल की एक लड़की ‘रोटी-रोटी’ चिल्लाती दम तोड़ गई, रोटी, कपड़ा व मकान आम आदमी की अभी भी पहली जरूरत बने हुए हैं। यदि पढ़ाई होगी तभी विज्ञापन का फायदा होगा। विज्ञापनबाजी में झारखंड ने पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों को भी पीछे छोड़ दिया। योजनाएं चाहे कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हों विज्ञापन योजनाओं से अहम नहीं हो सकते।
दरअसल फिजूल खर्ची बहुत बड़ी समस्या है, जिसे नकारात्मक नजरिये के तौर पर देखा जाना चाहिए, जिस राज्य में प्रसूताओं के लिए जरुरी स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है, वहां विज्ञापनों पर पैसा पानी की तरह बहता रहे यह सही नहीं। दरअसल यह चलन बन गया है कि चुनावी वर्ष में सरकारें विज्ञापनों पर धड़ाधड़ धन उड़ाती हैं। जबकि इनका उद्देश्य सरकारी योजनाओं का प्रचार कम व पार्टी को उभारना अधिक होता है। भ्रष्टाचार की शुरुआत के साथ सरकारी अधिकारियों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। प्रचार जरूरी है परंतु प्रचार के नाम पर लोगों के खून पसीने की कमाई से सींचे जाने वाले सरकारी खजाने को किसी पार्टी विशेष के प्रचार के लिए लुटाना लोकतंत्र विरोधी है। जनता का दिल विज्ञापनों से नहीं बल्कि आवश्यक सुविधाएं मुहैया करवाकर ही जीता जा सकता है। राजनीतिज्ञ जनता के प्रति संवेदनशीलता अपनाएं व सरकारी खजाने को लोगों की बेहतरी के लिए प्रयोग में लाएं।
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