हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों यूनिसेफ, विश्व खाद्य कार्यक्रम, खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में लगभग 21 प्रतिशत बच्चों का वजन उनकी उम्र और लंबाई के हिसाब से कम है। भूख और कुपोषण का सामजिक पक्ष भी है। 2016 में जारी किये गये नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के आंकड़ों के अनुसार भारत में आदिवासियों और दलितों कुपोषण की दर सर्वाधिक है, 5 वर्ष से कम आयु समूह के 44 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।
जावेद अनीस
विश्व की सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद, भारत में भुख और कुपोषण एक बड़ी और बुनियादी समस्या बनी हुई है। आज विश्व भूख सूचकांक में भारत बहुत नीचे और कमजोर बच्चों के मामले में सबसे ऊपर के देशों में शामिल है। इधर हमारी सरकार देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य पाले हुये है लेकिन अभी तक भूख और कुपोषण की समस्या बनी हुई है। हालांकि देश के अनाज भंडारों में भारी मात्रा में अनाज है और इससे निपटने के लिये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून भी लागू है लेकिन समस्या की व्यापकता बनी हुई है। ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत कुपोषित बच्चों के मामले में अव्वल देश है जबकि 2019 के विश्व भूख सूचकांक में शामिल कुल 117 देशों की सूची में भारत 102वें पायदान पर है। ऐसा नहीं है कि इस देश में भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिये संसाधनों या सामर्थ की कमी है दरअसल समस्या मंशा, इरादे और सबसे ज्यादा आर्थिक व राजनीतिक दृष्टिकोण की है।
भूख और कुपोषण का साया :
देश में भूख की व्यापकता हर साल नये आंकड़ों के साथ हमारे सामने आ जाती है जिससे पता चलता है कि भारत में भूख की समस्या कितनी गंभीर है। 2014 से 2019 के बीच ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति देखें तो वर्ष 2014 में भारत की रैंकिंग जहाँ 55 वें स्थान पर थी वहीं 2019 में 102वें स्थान पर हो गयी। हालांकि इसके हम इसकी सीधे तौर पर तुलना नहीं कर सकते हैं क्योंकि ग्लोबल हंगर इंडेक्स द्वारा अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव किया जाता रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद 2019 की रिपोर्ट भारत के लिये चिंताजनक है। दरअसल 2019 के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत अपने उन हमसाया पड़ोसी मुल्कों नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका और अफ्रीका के कुछ बहुत ही पिछड़े देशों से भी निचले पायदान पर है। इस बार के जीएचआई में भारत के बच्चों में तेजी से बढ़ रही कमजोरी की दर को लेकर विशेष चिंता जताई गयी है जोकि 20.8 फीसदी के साथ सभी देशों से ऊपर है। रिपोर्ट के अनुसार देश में 2010 से 2019 के बीच 5 वर्ष के कम उम्र के बच्चों में उनकी लंबाई के अनुपात में वजन कम होने के मामले में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है। इसका सीधा असर इन बच्चों के ग्रोथ पर पड़ेगा जिसे हम जीवन प्रत्याशा कहते हैं। कुपोषण की बात करें तो यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2019 के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में 69 प्रतिशत मौतों का कारण कुपोषण है जो कि एक भयावह आंकड़ा है। इस देश में 6 से 23 महीने के आयु समूह के केवल 42 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त अंतराल पर जरूरी भोजन मिल पाता है।
तरक्की के साथ असमानता :
भारत की तरक्की के साथ गहरी असमानता भी नत्थी है, उदारीकरण के बाद से भारत को ‘उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति’ माना जाता है। पिछले तीन दशकों के दौरान भारत ने काफी तरक्की की है। चन्द साल पहले तक हमारी जीडीपी छलांगें मार रही थी। लेकिन जीडीपी के साथ आर्थिक असमानताएं भी बढ़ी हैं और इस दौरान भारत में आर्थिक असमानता की खायी चौड़ी होती गयी है जिसकी झलक हमें साल दर साल भूख और कुपोषण से जुड़े आकड़ों में देखने को मिलती है। हम अपने आर्थिक विकास का फायदा सामाजिक और मानव विकास को देने में नाकाम साबित हुये हैं। उदारीकरण के बाद आई चमक के बावजूद आज भी देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने को मजबूर हैं। पिछले दशक के दौरान भारत उन शीर्ष दस देशों में शामिल है जहां करोड़पतियों की संख्या सबसे तेजी से बढ़ी है, परन्तु अभी भी देश के 80 प्रतिशत से अधिक आबादी सामजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर है। 2019 के मानव विकास सूचकांक ( ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) में भारत की रैंकिंग कुल 189 देशों में 129वें नंबर पर है। गौरतलब है कि यह रैंकिंग इसमें देशों की जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और आमदनी के सूचकांक के आधार पर तय की जाती है। जिस देश में असमानता अधिक होगी उस देश की रैंकिंग नीचे होती है। इस साल के शुरूआत में आॅक्सफैम द्वारा जारी की गई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीयों की महज 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77 प्रतिशत हिस्सा है। दरअसल भारत में यह असमानता केवल आर्थिक नहीं है, बल्कि कम आय के साथ देश की बड़ी आबादी स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसे मूलभूत जरूरतों की पहुंच के दायरे से भी बाहर है।
उपेक्षित और बहिस्कृत:
भूख और कुपोषण आज भी भारत की सबसे बड़ी समस्या बनी हुयी है लेकिन हमारी सरकारें इसे खुले रूप स्वीकार करने को तैयार नहीं है। भारत के राजनीतिक खेमे में इसको लेकर कोई खास चिंता या चर्चा देखने को नहीं मिलती। हालांकि यह समस्या बड़ी है कि हमारे देश और समाज के लिये यह प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। भारतीय राजनीति में भूख और कुपोषण एक महत्वहीन विषय हैं,समाज के स्तर पर भी यही रुख है। वैसे तो हमारे देश में भूख, गरीबी और कुपोषण दूर करने के लिये कई योजनायें चलायी जा रही है लेकिन ये महज योजनाएं ही साबित होती जा रही हैं। कहने को तो देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून भी है लेकिन यह ठीक से लागू नहीं है, साथ ही यह खाद्य सुरक्षा को बहुत सीमित रूप से संबोधित करता है। सबसे बड़ी समस्या सरकारों का रुख है हाल ही में भारत सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में तेजी लाने जिन राजकोषीय उपायों के लिए जो घोषणा की गई है उसके तहत कॉरपोरेट को 1.45 लाख करोड़ रुपये की टैक्स में छूट दी गयी है। लेकिन इसके बअरक्स भूख और कुपोषण की इस कदर खराब स्थिति होने के बावजूद इन्हें दूर करने के उपायों पर इस तत्परता से ध्यान नहीं दिया जाता है। जब जनकल्याणकारी योजनाओं पर खर्चे के बढ़ौतरी की बात आती है तो सरकारों का रुख बिलकुल जुदा होता है और बजट की कमी का रोना गाना शुरू कर दिया जाता है। दरअसल हमारी सरकारों का नजरिया यह बन चूका है कि जनकल्याणकारी योजनाओं पर खर्च अनुत्पादक काम है इसलिये वे इससे बचने का नित्य नये तर्क गढ़ती रहती हैं।
हंगर इंडेक्स में भारत के साल दर साल लगातार पिछड़ते चले जाने के बाद आज पहली जरूरत है इसके लिये चलायी योजनाएं की समीक्षा की जाये और इनके बुनियादी कारणों की पहचान करते हुये इस दिशा में ठोस पहलकदमी हो, जिससे आर्थिक असमानता कम हो और सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़े। इसके लिए सरकार की तरफ से बिना किसी बहाने के जरूरी निवेश किया जाये ताकि देश में आर्थिक विकास के साथ झ्रसाथ मानव विकास भी हो सके।
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