असली भारत की मानवीय त्रासदी

Migrant Laborers
पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, कर्नाटक और राजस्थान से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की ओर असली भारत के प्रवासी मजदूरों की हृदय विदारक मानवीय त्रासदी बढ़ती ही जा रही है। सर पर अपना बोझा लादे पुरूष, गोदी में अपने बच्चों को लिए गर्भवती महिलाएं बिना खाना, पानी और पैसे के अपने घरों को वापस लौटने हेतु सड़कों पर कतारें लगाए चल रहे हैं। उनमें से कुछ भूख से मर गए हैं और कुछ थकान के कारण रेल की पटरियों पर ही लेट गए जहां उन्हें रेल द्वारा रौंदा गया, कुछ को सड़को पर ट्रकों ने कुचल दिया। फिर भी बेचारे श्रमिकों का यह कारवां जारी है।
लॉकडाउन ने इन मजदूरों को गलत समय और गलत स्थान पर चौंका दिया है। यकायक उनकी नौकरी चली गयी, बेघर हो गए और उनके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है और वास्तव में वे गंभीर संकट में हैं। दिल्ली, आगरा, जयपुर, अलीगढ़ और बरेली में ऐसे हजारों मजदूर क्वारंटीन स्थलों से भाग गए। मुरादाबाद और सूरत की गलियों मे उन्होंने विरोध प्रदर्शन किया तो हजारों श्रमिक अमृतसर, बांदा, बेंगलुरू आदि स्थानों पर अपने गांवों तक पहुंचने के लिए रेलगाड़ियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इतने व्यापक स्तर पर श्रमिकों के पलायन से अधिकारी भी हैरान हैं। वास्तव में मजदूरों की ओर से ऐसी प्रतिक्रिया के बारे में नीति निमार्ताओं ने कोई योजना नहीं बनायी थी न ही कोई आकस्मिक योजना बनायी गयी थी।
अधिकारी विभिन्न राज्यों की सीमा सील करने और सोशल डिस्टैंसिंग बनाए रखने के लिए आदेश जारी करते रहे। अधिकारियों ने आदेश दिया कि जो मजदूर पलायन कर रहे हैं उन्हें 14 दिन तक क्वारंटीन में रहना होगा। किंतु वे ऐसा कैसे कर सकते थे। लॉकडाउन जरूरी था पर इसके कारण सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा से विहीन लोगों के लिए असह्य कठिनाइयां पैदा हुई हैं। एक सदी से अधिक समय बाद आई कोरोना महामारी ने भारत में आर्थिक खाई को उजागर किया है। हमारे शहरों में बड़ी संख्या में बेचारे मजदूर भीख मांगने के लिए मजबूर हो गए हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें उदासीन हैं। प्रवासी मजदूरों में से 80 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में हैं और रोजगार के पायदान पर वे सबसे निचले क्रम में हैं।
पुलिस के साथ झड़प, स्वास्थ्य कर्मियों के विरुद्ध हिंसा, भोजन और पानी को लेकर मारामारी बताती है कि यह संकट कितना गहरा है। हालांकि प्रधानमंत्री कह रहे हैं जान है तो जहान है किंतु मजदूरों का कहना है जान रहेगी जब भी तो जहान होगा। यदि इस महामारी से हम बच भी जाएंगे तो बेरोजगारी, भूख, अवसाद और स्वाभिमान समाप्त होना हमें अवश्य मार देगा। टीवी में हर रोज देखने को मिलता है कि किस तरह एक बेचारे निम्न आय वर्गीय लोगों को महामारी के नाम पर धमकाया जा रहा है और उनके साथ अत्याचार किया जा रहा हे। उन्हें मुर्गा बनाने के लिए बाध्य किया जाता है तो कहीं कान पकड़कर उठ बैठ करायी जाती है, कहीं कंगारूओं की तरह दौड़ाया जाता है और यह सब कुछ पुलिसकर्मी अपने अहं को तुष्ट करने के लिए करते हैं।
आज राज्यों में लोजिस्टिक की भारी समस्याएं देखने को मिल रही हैं। 18 लाख प्रवासी श्रमिक और उनके परिवार के लोग अपने घरों को वापिस लौट रहे हैं। गुजरात में पांच हजार से अधिक ऐसे मजदूरों ने सड़क ब्लॉक कर पुलिस पर पथराव किया क्योंकि वे उन्हें वापस जाने से रोक रहे थे। यह स्थिति तब है जबकि उन्हें रोजगार मिलने के आसार हैं क्योंकि फैक्टरियां धीरे धीरे खुल रही हैं। दूसरी ओर इन लोगों को आवश्यक चीजें उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं । आधे दर्जन से अधिक राज्यों में आठ सप्ताह से अधिक चले इस लॉकडाउन के कारण भोजन की कमी है। प्रवासी मजदूर क्वारंटीन में उन्हें दिए जा रहे भोजन को स्वीकार नहीं कर रहे हैं क्योंकि उसकी गुणवत्ता खाने योग्य नहीं है या यह उनके स्वाद के अनुसार नहीं है। कुपोषित बच्चे भोजन की भीख मांग रहे हैं और भूख के कारण मौतों की खबरें आए दिन आ रही हैं। कांग्रेस का कहना है कि वह इन प्रवासी मजदूरों की दयनीय दशा को लेकर जनता के बीच जाएगी। जबकि भाजपा का कहना है कि राज्य अपनी कमियों को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं और उन्होंने प्रवासी मजदूरों के संकट के समाधान के लिए कोइ प्रयास नहीं किए। जबकि विपक्ष शासित राज्य कह रहे हैं कि केन्द्र अपनी विफलता का ठीकरा उनके सर पर फोड़ना चाहता है।
केन्द और विपक्ष शासित राज्यों के बीच यह आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। केन्द्र ने ममता के पश्चिम बंगाल पर आरोप लगाया है कि वह प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर कोई कदम नहीं उठा रही है और राज्य सरकार ने प्रवासी मजदूरों के लिए केवल दो श्रमिक रेलगाड़ियां चलाने की अनुमति दी जबकि उत्तर प्रदेश ने ऐसी 450 और मध्य प्रदेश में 250 श्रमिक एक्सपेस चलायी गयी हैं। ममता का कहना है कि यह सच नहीं है। उनके राज्य में ऐसी 9 रेलगाड़ियां आयी हैं किंतु यह बात समझ से परे है कि वह अगले 30 दिनों में केवल 109 ऐसी रेलगाड़ियों को अनुमति देना चाहती है।
असम में कोरोना के मामले बढ़ने के साथ ही राज्य सरकार ने राजस्थान सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने पांच कोरोना संक्रमित व्यक्ति वहां भेजे हैं क्योंकि राजस्थान से एक बस में 43 यात्री वापस लौटे थे। झारखंड ने छत्तीसगढ़ और गुजरात पर आरोप लगाया है कि वे कोरोना संक्रमित व्यक्तियों को वापस भेजा है। महाराष्ट्र में अन्य रज्यों के 10 दस लाख से अधिक प्रवासी श्रमिक हैं और उसे उन्हें वापिस भेजने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि जिन राज्यों को इन मजदूरों को भेजा जाना है वे चाहते हैं कि पहले इन मजदूरों का परीक्षण हो और फिर उन्हें 14 दिन तक क्वारंटीन में रखा जाए।
हरियाणा और कर्नाटक ने भी ऐसी ही शर्तें रखी हैं। बिहार ने पहले सभी प्रवासी श्रमिकों को वापस बुलाने की सहमति दे दी थी किंतु अब उसने अपने रूख में बदलाव किया है और कहा है कि इसका निर्धारण प्रत्येक मामले को अलग अलग ध्यान में रखकर किया जाएगा। ओडिशा भी प्रवासी मजदूरों को स्वीकार करने का इच्छुक नहीं है। झारखंड से लौट रही बसों को बंगाल सीमा पर इसलिएए रोक दिया गया कि उन्होने मानकों का पालन नहीं किया है। इस बात को लेकर भी विवाद है कि श्रमिकों की वापसी का खर्चा कौन उठाएगा। शुरू में केन्द्र ने कहा कि यह खर्चा मजदूरों को उठाना पड़ेगा किंतु बाद में जनता और विपक्ष के आक्रोश के चलते केन्द्र और राज्य इस खर्चे को साझा करने के लिए सहमत हुए। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि उसने कांग्रेस शासित राज्यो में हजारों श्रमिकों के किराए का भुगतान किया है।
यह बात सर्वविदित है कि प्रवासी श्रमिक राजनेताओं के गणित में फिट नहीं बैठते हैं। इनकी अपनी इतनी बड़ी संख्या के बावजूद इनका कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं है क्योंकि इनमें से अधिकतर अपने राज्यों के मतदाता हैं और जब चुनाव आता है तो वे अक्सर शहरों में रहते हैं और मतदान नहीं कर पाते हैं। संख्या की दृष्टि से भी वे अदृश्य समान हैं क्योंकि वे शहरों, गांवो और कार्यस्थलों में भटकते रहते हैं जिससे वे प्रभावशाली मतदाता नहीं बन पाते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार यदि श्रम शक्ति में प्रवासी मजदूरों का हिस्सा 20 प्रतिशत भी मान लिया जाए तो उनकी संख्या 10 करोड़ से अधिक है। फिर भी मोदी कहते हैं कि जब समय साथ नहीं देता है तो आदमी अपने घर की ओर चले जाता है और अब जब उद्योग खुलने वाले हैं तो मजदूरों का मिलना मुश्किल है। प्रवासी श्रमिकों का संकट और गहराता जाएगा क्योंकि महामारी के भय और आय न होने के भय के विकल्प उपलब्ध हैं ।
प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा का एक परिणाम मजदूरों के शोषण के रूप में भी सामने आ सकता है क्योंकि कुछ इलाकों में इनकी संख्या बढ़ गयी है। लोग मजदूरी और आजीविका के साधनों को प्राप्त करने के लिए हताश हैं तो इनके शोषण की संभावनाएं भी बढ़ गयी हैं। कंपनियां पहले ही श्रमिकों की कमी की शिकायतें कर रही हैं । हवाई अड्डों, बंदरगाहों और कारखानों में श्रमिकों की कमी देखने को मिल रही है। इसके चलते आर्थिक मंदी की संभावनाएं और बढ़ गयी हैं। दूसरी ओर उन इलाकों में श्रमिकों की स्थिति में सुधार आने की संभावना है जहां पर प्रवासी मजदूरो के जाने के कारण मजदूरों की कमी हो गयी है। आज भारत एक अभूतपूर्व प्रवासी मजदूरों की मानवीय समस्या का सामना कर रहा है। इस समस्या का समाधान अनुशासन के साथ मानवीय मूल्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यह सच है कि सरकार ने उनके लिए अनेक उपायों की घोषणा की है किंतु आवश्यकता इस बात की है कि इसके लिए खजाने के द्वार खोले जाएं। आशा की किरण यह है कि यदि हम ऐसा करना चाहते हैं तो हमें कुछ समय मिल गया है। इसलिए प्रवासी श्रमिकों को बेहतर भविष्य देने के लिए तैयारियां शुरू की जानी चाहिए।
पूनम आई कौशिश

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।