वर्तमान में विकास के तथाकथित मॉडल ने पूरी दुनिया को वैश्विक ग्राम का रूप प्रदान तो किया है, किन्तु मानवीय मूल्य, संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार और प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति हमारा व्यवहार सब कुछ कहीं खो गया है। तथाकथित विकास के परिणामस्वरूप जन्मी अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याएं वस्तुत: हमारी वस्तुपरक भोगवादी दृष्टि का ही नतीजा है।
हमने भोगवादी मंडल को अपनाया है और यही हमारे जीवन तथा पर्यावरण के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहा है। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को लगातार नुक्सान पहुंचाता चला जा रहा है। वैज्ञानिकों द्वार बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद प्रकृति से अधिकतम पदार्थ प्राप्त कर लेने की इच्छा खत्म नहीं हो रही और प्रकृति का दोहन खूब हो रहा है।
अपने लाभ के लिए मनुष्य द्वारा विकास के नाम पर कई ऐसे अविष्कार भी कर दिए गये, जो जल, जंगल, जमीन में जहर घोल रहे हैं। प्रकृति के उपहारों का ऐसा दुरूपयोग किया कि धरती, आकाश, पाताल जहां से मिल सकता था उसे लेने में कोई कसर बाकी न रखी। वैज्ञानिकों द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद प्रकृति से अधिकतम पदार्थ प्राप्त कर लेने की इच्छा खत्म नहीं हो रही।
प्रकृति का दोहन खूब हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के निरंतर एवं असीमित दोहन ने दुनियाभर में पर्यावरण के लिए चिंताजनक स्थिति निर्मित कर दी है। अपने लाभ के लिए मनुष्य द्वारा विकास के नाम पर कई ऐसे आविष्कार भी कर दिए गए जो जल, जंगल, जमीन में जहर घोल रहे हैं, जानवरों की मौत का कारण बन रहे है।
प्रकृति के उपहारों का ऐसा दुरूपयोग किया कि धरती, आकाश, पाताल जहां से मिल सकता था, उसे लेने में कोई कसर बाकी न रखी। इस बेहिसाब दोहन का यह नतीजा है कि आज पर्यावरण का संकट पूरी दुनिया पर छा गया है। पर्यावरण संकट के दुष्परिणाम अकाल, बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन जैसी आपदाओं के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं।
पर्यावरण संकट से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाली जन-धन आदि की हानि भी विकास की अंधाधुंध रफ्तार को नहीं रोक पाई है। उपजाऊ जमीन, घने जंगल, अनेक प्रकार के जल स्त्रोत सहित अन्य प्राकृतिक संसाधन विकास की सीमा रेखा को खतरा साबित हो चुके विकास की सीमा रेखा को बहस से सर्वसम्मति तक की प्रक्रिया तय नहीं हो पाई हैं।
विकास की कोई सीमा रेखा तय न होने का नतीजा यह है कि आज अधिकांश जल स्त्रोत प्रदूषित होकर समाप्ति की ओर जा रहे हैं। जल संकट साल-दर-साल गहराता जा रहा है। हरी-भरी जमीन जलविहीन होकर रेगिस्तान में बदलने की स्थिति है। हवा में बढ़ता जहरीला धुआं बढ़ते-बढ़ते ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाने की स्थिति निर्मित कर चुका है।
आज जब बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, तो सभी बिलखने लगते हैं, चीख पुकार मच जाती है, सरकार विरोधी नारे लगने लगते हैं, कुछ भगवान को भी कोसने लगते हैं। मगर किसी ने नहीं सोचा कि ऐसा होता क्यूं है? हमारी अधिकांश समस्याएं वस्तुपरक भोगवादी दृष्टि से ही पैदा हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में लगभग 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं होता, लेकिन यह आंकड़ा महज शहरी आबादी का है।
ग्रामीण इलाकों की बात करें, तो वहां 70 फीसदी लोग अब भी प्रदूषित पानी पीने को ही मजबूर हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, पीने के पानी की कमी के चलते देश में हर साल लगभग छह लोग पेट और संक्रमण की विभिन्न बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं। अब जब 2028 तक आबादी के मामले में चीन को पछाड़ कर देश के पहले स्थान पर पहुंचने की बात कही जा रही है, यह समस्या और भयावह हो सकती है। एक और तो गांवों में साफ पानी नहीं मिलता तो दूसरी ओर, महानगरों में वितरण की कामियों के चलते रोजाना लाखों गैलन साफ पानी बर्बाद हो जाता है।
कहने को तो भारत नदियों का देश है, लेकिन विडंबना यह है कि 70 प्रतिशत नदियां जानलेवा स्तर तक प्रदूषित हैं। भारत की कई नदियां जैविक लिहाज से मर चुकी हैं। इसका असर पर्यावरण के साथ लोगों पर भी पड़ रहा है। कई नदियों का अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है। देशभर में प्रदूषण की चपेट में करीब 150 नदियों में गंगा और यमुना नदी दुनिया की दस गंदी नदियों में भी शुमार हैं।
देश के 27 राज्यों में 150 नदियां ऐसी हैं, जो प्रदूषण की चपेट में हैं, इनमें सबसे ज्यादा 28 नदियां महाराष्टÑ राज्य में हैं, तो विकास की मिसाल कायम कर रहे गुजरात की 19 नदियों का भी प्रदूषण के कारण हाल बुरा है। राज्यवार प्रदूषित नदियों की बात की जाए, तो उत्तर प्रदेश तीसरे पायदान है, जहां 12 प्रदूषित नदियां समस्या बनी हुई हैं।
इसी प्रकार कर्नाटक में 11 के अलावा मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में 9-9 नदियां ऐसी हैं, जो प्रदूषण की चपेट में हैं। वहीं राजस्थान की पांच और झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की भी तीन-तीन नदियां प्रदूषित नदियों की सूची में शामिल हैं। राष्टÑीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से गुजरने वाली एकमात्र यमुना नदी का प्रदूषण तो अरसे से सुर्खिंयों में बना हुआ है।
भारत के वन क्षेत्र पर स्थिति रिपोर्ट 2015 के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर, महाराष्टÑ, केरल, कर्नाटक, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना में जंगल तेजी से घटे हैं। पूरे भारत की बात करें, तो 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में देश में केवल 12 बार सूखा पड़ा, यानी 16 वर्ष में एक बार सूखा पड़ा। लेकिन 1968 के बाद से सूखे की तादाद में वृद्धि आई। जंगलों की अंधाधुंध कटाई पर्यावरणविद् ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है। मानवीय लालच ने वनों की विनाश लीला का काला अध्याय लिखा है।
धरती का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते प्रकृति में अनेक नुकसानदेह परिवर्तन हो रहे हैं। कुल मिलाकर देखें, तो बढ़ती गर्मी के लिये कहीं न कहीं मानव जाति ही कसूरवार है।
विकास की दौड़ में सरपट भागते इंसानों ने कार्बन उत्सर्जन, पेड़ों की कटाई, प्रकृति से खिलवाड़ करते वैश्विक तापमान में जो बढ़ोतरी की है, उसका ही दुष्परिणाम अब प्रतिवर्ष बढ़ती हुई गर्मी एवं तापमान के रूप में सामने आ रहा है। आंकड़ों की बात की जाए, तो पिछले डेढ़ दशक में देश में हर वर्ष औसतन तापमान में बढ़ोतरी रिकॉर्ड की जा रही है।
वर्ष 2015 में भारत का वार्षिक तापमान औसत से 0.67 डिग्री ज्यादा था, जोकि 1901 के बाद से अब तक तीसरा सबसे ज्यादा गर्म साल रहा। गौरतलब है कि पिछली एक शताब्दी के दौरान देश के अन्य 9 सबसे गर्म वर्षों में 2009, 2010, 2003, 2002, 2014, 1998, 2006 और 2007 है। खास बात यह है कि पिछले 15 वर्षों 2000 से 2015 के दौरान ही रहे।
इससे आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष तापमान बढ़ने की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। पिछले वर्ष जानलेवा गर्मी ने ढाई हजार लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। ऐसे हालात में यह जरूरी हो गया है कि विकास को इस प्रकार सीमित व व्यवस्थित बनाया जाए कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम रह सके।
विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार निर्धारित किया जाए कि उससे प्राकृतिक संसाधनों पर विपरीत प्रभाव न हो। यदि विकास के साथ-साथ पर्यावरण की भी गंभीरता से चिंता की जाए तो बिगड़ती प्राकृतिक स्थिति पर कुछ रोक लगाना संभव है। मत भूलिये की प्राकृतिक संसाधन इंसान की आवश्यकतों की पूर्ति तो कर सकता है, किन्तु उसकी लालच की पूर्ति नहीं कर सकता।
– आशीष वशिष्ठ
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