सो शल मीडिया का इस्तेमाल आज कल घातक ज्यादा बनता जा रहा है। इस प्लेटफॉर्म की शुरूआत लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए और समाज में मेलमिलाप बढ़ाने के लिए किया गया था लेकिन कुछ लोगों की दूषित मानसिकता के चलते यह दुर्भावना और वैमनस्यता फैलाने का हथियार बनता जा रहा है। पिछले दिनों वैसे तो झूठी खबरों और नफरत फैलाने वाली बातों का प्रसार सोशल मीडिया के सभी माध्यमों से हो रहा है, लेकिन इस मामले में सबसे कुख्यात वॉट्सएप है। अपने देश में भीड़ की हिंसा के कई मामलों में यह सामने आया कि वॉट्सएप से इस आशय की झूठी सूचनाएं फैलाई गईं कि अमुक जगह बच्चा चोरी करने वाले सक्रिय हैैं। इसी तरह कई जगह अशांति इसलिए बनी, क्योंकि नफरत फैलाने वाला कोई संदेश प्रसारित किया गया था। आम धारणा है कि वॉट्सएप झूठी खबरें यानी फेक न्यूज के प्रसार का पसंदीदा माध्यम बन गया है। इसी कारण सरकारों को इस माध्यम के दुरुपयोग को रोकने के उपाय सोचने पड़ रहे हैैं। ध्यान रहे कि इस माध्यम की तकनीक भी ऐसी है कि किसी अन्य के लिए सूचनाओं को पढ़-समझ पाना कठिन है।
पिछले दिनों व्हाट्स एप ने भारत सरकार के उस अनुरोध को ठुकरा दिया जिसमें असत्य और आधारहीन समाचारों का स्रोत बनाने कहा गया था। कंपनी का तर्क है कि ऐसा करने पर व्हाट्स एप का उपयोग करने वाले की निजता भंग हो जाएगी। दरअसल ये सारा विवाद हाल ही में घटित कुछ हिंसक घटनाओं को लेकर व्हाट्स एप पर प्रसारित उन खबरों या संदेशों से उत्पन्न हुआ जो फारवर्डेड मैसेज कहलाते हैं। इस प्रक्रिया में ये पता लगाना कठिन होता है कि संदेश की शुरूआत किसने की।
भारत सरकार ने व्हाट्स एप संचालकों से उसी मूल स्रोत की जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करने कहा जिस पर उसने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। वैसे हाल ही में किसी संदेश को 5 लोगों से ज्यादा भेजने पर रोक जरूर लग गई है किंतु उसके बावजूद भी व्हाट्स एप पर तथ्यहीन जानकारी और संदेशों के प्रसारण का सिलसिला नहीं रुक सका।
इस बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि निजी अथवा सामूहिक संवाद के इस सरलतम माध्यम ने सोशल मीडिया को बहुत ही ताकतवर माध्यम बना दिया। इसके जरिये न सिर्फ विचारों और सूचनाओं अपितु चित्रों का भी आदान प्रदान पलक झपकते संभव हो गया है। इससे बढ़कर व्हाट्स एप फोन का काम भी करता है। वीडियो कॉलिंग का विकल्प तो सोने पे सुहागा जैसा है। विदेश में रहकर अपने देश में संपर्क बनाये रखने में इसका उपयोग बेहद क्रांन्तिकारी साबित हुआ लेकिन जिस तरह विज्ञान वरदान या अभिशाप जैसे विषय पर आज भी बहस चला करती है ठीक वैसे ही सोशल मीडिया खास तौर पर व्हाट्स एप भी लोगों को बोझ या सिरदर्द लगने लगा है।
व्हाट्स एप पर बने समूह अपनी सार्थकता खोने लगे हैं। यद्यपि इसकी उपयोगिता और सम्प्रेषण में मिलने वाली मदद से इंकार करना सच्चाई से मुंह मोडने जैसा होगा किन्तु ये कहना भी गलत नहीं है कि उपयोगकतार्ओं के गैर जिम्मेदाराना आचरण ने इस माध्यम को विवादग्रस्त बनाते हुए इसकी विश्वसनीयता को सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है। किसी अफवाह को व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी की उपज बताकर मजाक बनाना भी सामान्य हो गया है। हाल ही में भीड़ की हिंसा और ऐसे ही कुछ संवेदनशील मामलों में व्हाट्स एप के गलत उपयोग के बाद सरकार हरकत में आई और उसके संचालकों से किसी आपत्तिजनक खबर अथवा जानकारी के मूल स्रोत का पता लगाने की व्यवस्था करने कहा। जिसे उसने सिरे से नकार दिया और निजता के उल्लंघन का बहाना बनाकर हाथ खड़े कर दिए।
केंद्र सरकार व्हाट्स एप पर प्रसारित होने वाली आपत्तिजनक जानकारी के दोषी का पता लगाने के लिए आगे क्या कदम उठाती है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि अगर वह चुपचाप बैठ गई तब उसकी किरकिरी तो होगी ही व्हाट्स एप के उपयोगकतार्ओं में बैठे अनगिनत शरारती तत्वों का हौसला और बुलन्द होता जाएगा। सोशल मीडिया पर सिर्फ असत्य खबरें ही नहीं अपितु अश्लील सामग्री प्रसारित करने का कारोबार खूब चल रहा है। दरअसल केंद्र सरकार की मुसीबत ये भी है कि विदेश में बैठा व्यक्ति बड़े आराम से भारत में कोई भी ऐसी बात प्रसारित कर देता है जो हमारे सामाजिक मूल्यों के अलावा देश की सुरक्षा, एकता और अखण्डता के लिए खतरा बन सकती है। पड़ोसी देश चीन ने तो फेसबुक और व्हाट्स एप के उपयोग पर ही रोक लगा रखी है। हालांकि इसका उद्देश्य चीनी जनता और विश्व समुदाय के बीच दूरी बनाए रखना भी है। भारत यद्यपि सूचना तकनीक के मामले में विश्व के अग्रणी देशों में है किंतु हमारे पास अभी तक वह तकनीक और इच्छाशक्ति नहीं है जो चीन अपनाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और स्वतंत्र न्यायपालिका भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सोशल मीडिया पर किसी भी तरह के सरकारी नियंत्रण की इजाजत नहीं देते। यही वजह है कि किसी असत्य जानकारी का स्रोत पता करने के लिए सरकार को व्हाट्स एप से अनुरोध करना पड़ा।
बहरहाल अब सोशल मीडिया की बहस उस हद तक पहुंच गई है, जहां उस पर नकेल जरूरी लगती है। हालांकि यह विचार भी सामने आया है कि नियंत्रण इतना न हो कि आम आदमी की हंसी-मजाक की प्रवृत्तियां ही मर जाएं, लेकिन अब सोशल मीडिया के कुछ कायदे-कानून तय करने होंगे। ऐसे बदनाम मंचों पर संविधान पीठों को भी गालियां देना स्वीकार नहीं किया जा सकता। दरअसल 2009 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा बनाए गए सूचना तकनीकी कानून के अनुच्छेद 66-ए में पुलिस को कंप्यूटर या किसी भी अन्य प्रकार के साधन द्वारा भेजी गई किसी भी ऐसी चीज के लिये भेजने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था जो उसकी निगाह में आपत्तिजनक हो। और यह तो पुलिस नाम की संस्था के चरित्र में ही निहित है कि अधिकार का दुरुपयोग किया जाये। तो पुलिस ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके अनेक प्रकार के मामलों में गिरफ्तारियां कीं। इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया।
सरकार कानून बनाकर कितनी रोक लगा सकेगी ये भी कहना मुश्किल है। सही अर्थों में ये तो उपयोगकर्ता पर निर्भर करता है कि वह सोशल मीडिया का किस तरह उपयोग करे? तकनीक के विकास ने अब संचार और संवाद को इतना सस्ता, सरल और सुलभ बना दिया है कि वह आम आदमी के रोजमर्र्रा के उपयोग की चीज बन गये हैं। अब तो कॉल और डाटा दरें लगभग मुफ्त हो चली हैैं। परिणाम यह है कि लोग मोबाइल पर गैरजरूरी बातें करने में घंटों खपा देते हैैं। डाटा के इस्तेमाल में भी यही स्थिति है। चूंकि सब कुछ करीब-करीब मुफ्त में उपलब्ध है, इसलिए लोग कुछ न कुछ देखते-सुनते रहते हैं या फिर सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म में बेवजह सक्रिय रहते हैैं। इस दौरान ही वे जाने-अनजाने झूठी खबरों के प्रचार-प्रसार में सहायक बनते हैैं। कई बार शरारती और अतिवादी तत्व जान-बूझकर नफरत फैलाने के लिए तरह-तरह की झूठी खबरें गढ़ते या फिर उन्हें प्रसारित करते हैैं। सोशल मीडिया कंपनियां ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में आनाकानी करती हैैं। वे ऐसा इसलिए करती हैैं, क्योंकि उनका व्यावसायिक हित प्रभावित होता है।
इसके बाद केंद्र सरकार ने इस मामले की तह तक जाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट अब आ गई है और उसने भारतीय दंड संहिता, फौजदारी प्रक्रिया संहिता और सूचना तकनीकी कानून में संशोधन करके सख्त सजाओं का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की है। इनमें एक सिफारिश यह भी है कि किसी भी किस्म की सामग्री द्वारा नफरत फैलाने के अपराध के लिए दो साल की कैद या पांच हजार रुपये जुर्माना या फिर दोनों की सजा निर्धारित की जाये। भय या आशंका फैलाने या हिंसा के लिए उकसाने के लिए भी एक साल की कैद या पांच हजार रुपये या फिर दोनों की सजा की सिफारिश की गई है। जांच प्रक्रिया के बारे में भी कई किस्म के संशोधन सुझाए गए हैं। अब वक्त आ गया है कि सोशल मीडिया के बेलगाम होते घोड़े पर नकेल कसी जाए।
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