आप्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल नेचर का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते एशियाई ग्लेशियरों के सिकुड़ने का खतरा बढ़ गया है और अगर इसे बचाने की कोशिश नहीं हुई, तो सदी के अंत तक एशियाई ग्लेशियर अपने कुल भाग का एक तिहाई खत्म हो जाएंगे। शोधकर्ताओं ने अपने शोध में यह भी पाया है कि अगर वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने में सफलता मिलती है तो फिर पर्वतों से 36 प्रतिशत बर्फ भी कम हो जाएगी। और अगर तापमान वृद्धि इससे कहीं अधिक हुई, तो कई गुना बर्फ पिघल जाएगी।
याद होगा अभी गत वर्ष ही र्केब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि आने वाले एक-दो वर्षों में आर्कटिक समुद्र की बर्फ पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। इसका आधार वैज्ञानिकों द्वारा अमेरिका के नेशनल स्रो एंड आइस डाटा सेंटर की ओर से ली गयी सैटेलाइट तस्वीरे हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक आर्कटिक समुद्र के केवल 11.1 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर क्षेत्र में ही बर्फ बची है जो कि पिछले तीस साल के औसत 12.7 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर से कम है।
उनका दावा है कि तेजी से बर्फ पिघलने से समुद्र भी गर्म होने लगा है। गौर करें तो यह स्वाभाविक भी है कि जब बर्फ की मोटी परत नहीं होगी तो पानी सूर्य की किरणों को ज्यादा मात्रा में सोखेगी ही। फिर ग्लोबल वार्मिंग के खतरनाक होने से कैसे रोका जा सकता है। गत जुलाई में जर्नल नेचर क्लाइमेट में प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री से कम रखने की सिर्फ 5 प्रतिशत ही संभावना है। पृथ्वी का वातावरण पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में तकरीबन एक डिग्री गर्म हो चुका है। इससे सदी के अंत तक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि हो जाएगी।
वैज्ञाानिकों का अनुमान है कि ग्लेशियर के पिघलने में तेजी आयी तो बाढ़ का खतरा उत्पन होगा और समुद्र के जल में भारी इजाफा होगा। इससे समुद्रतटीय शहरों के डूबने का खतरा बढ़ जाएगा। 2016 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक पिछले सौ साल में समुद्र का पानी बढ़ने की रफ्तार पिछली 27 सदियों से ज्यादा है। वैज्ञानिकों की मानें तो अगर धरती का बढ़ता तापमान रोकने की कोशिश न हुई तो दुनिया भर में समुद्र का स्तर 50 से 130 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। गौरतलब है कि आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा, ग्रीनलैंड (डेनमार्क का एक क्षेत्र) रुस का कुछ हिस्सा, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का) आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड भी पिघल जाएंगे और समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक वृद्धि हो जाएगी। इसका परिणाम यह होगा कि समुद्रतटीय नगर समुद्र में डूब जाएंगे। ऐसा हुआ तो फिर न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, पेरिस और लंदन, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम कोचीन और त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में होंगे। वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से भी कम रह गयी है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि तेजी से बर्फ पिघलने के लिए मुख्यत: ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन ही जिम्मेदार है। एक आंकड़ें के मुताबिक अब तक वायुमण्डल में 36 लाख टन कार्बन डाइआक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल से 24 लाख टन आक्सीजन समाप्त हो चुका है। अगर यही स्थिति रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होगी जिससे दुनिया खतरे में पड़ जाएगी। उचित होगा की वैश्विक समुदाय तेजी से पिघल रहे ग्लेशियरों को बचाने के लिए ठोस पहल करे।
-अभिजीत मोहन