योगेश कुमार गोयल
इस साल अप्रैल माह से ही देश के लगभग सभी राज्यों में अलग-अलग रूपों में प्रकृति का जो प्रकोप देखा जा रहा है, उससे हर कोई चिंतित और बेबस है। कहीं आंधी तूफान में परिवर्तित होकर सैंकड़ों लोगों का काल बन गई तो कहीं भारी बारिश, बर्फबारी, आसमान से गिरती बिजली ने खूब तबाही मचाई। इस दौरान मौसम विभाग द्वारा बार-बार कहीं धूल भरी आंधी के साथ तूफान की चेतावनियां दी जाती रही तो कहीं भारी बारिश के कारण बाढ़ के हालात उत्पन्न होने की। मौसम की बेरूखी का आलम यह है कि जहां मानसून की दस्तक के साथ ही पूर्वोत्तर राज्य बाढ़ की भयानक विभीषिका झेलने को अभिशप्त हुए और उससे लाखों लोग प्रभावित हुए, इन राज्यों के कई हिस्सों का सम्पर्क देश से कट गया, वहीं केरल में बाढ़ और भू-स्खलन से जान-माल का काफी नुकसान हुआ, मुम्बई में भारी बारिश के चलते नेवी को राहत बचाव के लिए अलर्ट करना पड़ा, उत्तराखण्ड में भारी बारिश की चेतावनी जारी हुई, दिल्ली, चण्डीगढ़, पंजाब सहित उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों की हालत पिछले दिनों तपती गर्मी में प्रदूषित हवा और धूल के गुबार के चलते गैस चैंबर जैसी हो गई थी।
देश की राजधानी दिल्ली पहले से ही दुनिया के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में शामिल है और पश्चिमी विक्षोभ के चलते उत्तर भारत का अधिकांश हिस्सा जिस प्रकार धूल-अंधड़ की चपेट में आया, जिससे दिल्ली में प्रदूषण के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए थे। तमाम प्रयासों के बावजूद दिल्ली पिछले कई महीनों से दम घोंटू प्रदूषित हवा से बुरी तरह जूझ रही है किन्तु पिछले दिनों दिल्ली की हवा 14 गुना जहरीली दर्ज की गई। जहां गर्द के गुबार ने दिल्ली का दम निकाल दिया, वहीं गत वर्ष नवम्बर माह में भी ऐसे ही भयावह हालात पैदा हुए थे, जब 144 घंटे तक आपात स्थिति बरकरार रही थी। अक्तूबर से दिसम्बर के बीच स्मॉग के चलते दिल्ली का दम घुटता रहा था लेकिन विड़म्बना ही है कि उन हालातों से कोई सबक नहीं लिया गया। न आम नागरिकों ने अपनी जिम्मेदारी निभाई और न ही सरकारों ने पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए कोई ठोस कदम उठाए। हालांकि अब दिल्ली सहित उत्तर भारत में मानसून की दस्तक के साथ पर्यावरण प्रदूषण की हालत में सुधार हुआ है।
स्मॉग के चलते घुटन भरा माहौल बने या फिर चारों ओर छाई धूल की चादर की वजह से दम घुटने लगे, अक्सर नागरिकों को सलाह दी जाती है कि वो घर से बाहर न निकलें किन्तु कामकाजी या मेहनत-मजदूरी करके अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले लोगों के लिए क्या यह संभव है कि वे घर में बैठकर अपनी रोजी-रोटी का बंदोबस्त कर सकें। हालांकि यह बात सही है कि प्रकृति के समक्ष हम बेबस हैं और हमें ऐसी स्थितियों में राहत भी प्रकृति से ही मिल सकती है किन्तु हम प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए पर्यावरण प्रदूषण के स्थानीय कारकों पर तो नियंत्रण कर ही सकते हैं। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद आज भी खुले में कचरा जलाते लोग व खेतों में जलती पराली के दृश्य जगह-जगह दिख जाएंगे। बार-बार अदालतों को प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए ठोस कदम उठाने हेतु निर्देश देने के लिए बाध्य होना पड़ता है लेकिन उससे भी स्थिति नहीं सुधर रही क्योंकि मौसम की बेरूखी देखने-समझने के बावजूद अभी तक हमारी आंखें नहीं खुली हैं।
वायु गुणवत्ता के मानक आंकड़ों पर नजर डालें तो शून्य से पचास तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त माना गया है जबकि इक्यावन से सौ तक संतोषजनक, एक सौ एक से दो सौ के बीच मध्यम, दो सौ एक से तीन सौ के बीच खराब, तीन सौ एक से चार सौ के बीच बहुत खराब और चार सौ एक से पांच सौ के बीच सूचकांक को खतरनाक माना गया है और पिछले कुछ महीनों के आंकड़े देखें तो दिल्ली और उसके आसपास की आबोहवा बहुत खराब है। मार्च में एक्यूआई का स्तर 203, अप्रैल में 222 और मई में 217 दर्ज किया गया जबकि गत 14 जून को यह सारी हदें पार करते हुए 1093 तक जा पहुंचा। वायु में पीएम-10, पीएम-2.5 और नाइट्रोजन की बात करें तो इनकी मात्रा भी सामान्य से कई गुना ज्यादा देखी गई है।
गत दिनों पीएम-10 का स्तर 1407 और पीएम-2.5 का स्तर 371 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक जा पहुंचा जबकि मानकों के अनुसार पीएम-10 तथा पीएम-2.5 की मात्रा वातावरण में क्रमश: 100 व 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। वायु में पीएम-2.5 और पीएम-10 का स्तर बढ़ जाने से यह प्रदूषित वायु फेफड़ों के अलावा त्वचा तथा आंखों को भी बहुत नुकसान पहुंचाती है। इन हालातों के मद्देनजर यदि कहा जाए कि यहां स्वस्थ जीवन के लिए प्राणवायु अब न के बराबर बची है तो असंगत नहीं होगा। पिछले कुछ ही वर्षों में कैंसर, हृदय रोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का संक्रमण, निमोनिया, लकवा इत्यादि के मरीजों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है और लोगों की कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा अब इन बिन बुलाई बीमारियों के इलाज पर ही खर्च हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में हर दस में से नौ व्यक्ति विषैली हवा में सांस लेने को विवश हैं और प्रतिवर्ष करीब 70 लाख लोग असमय ही काल का ग्रास बन जाते हैं।
माना कि पिछले दिनों गर्द के गुबार के चलते दिल्ली और आसपास के इलाकों की हालत बदतर हुई थी किन्तु स्थिति पहले भी अच्छी नहीं थी। कार्बन उत्सर्जन के मामले में दिल्ली दुनिया के 20 शीर्ष शहरों में शामिल है और इस मामले में उसने कोलकाता और मुम्बई को भी पीछे छोड़ दिया है। ऐसे शीर्ष 500 शहरों में 22 भारत के हैं। नार्वे विज्ञान व तकनीकी विश्वविद्यालय द्वारा दुनिया के तेरह हजार शहरों में कराए गए अध्ययन के आधार पर सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले शहरों की सूची जारी की गई और इन तेरह हजार शहरों में से भारत के कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद, चेन्नई, बेंगलुरू, पुणे और अहमदाबाद क्रमश: 49, 70, 90, 108, 110, 130 व 185वें पायदान पर हैं जबकि दिल्ली 20 सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले शहरों में शामिल है। हवा में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को लेकर चाइनीज एकेडमी आॅफ साइंस द्वारा किए गए एक शोध में कहा गया है कि यदि कार्बन उत्सर्जन कम नहीं हुआ तो अगले 50-80 वर्षों में धरती का तापमान चार डिग्री तक बढ़ सकता है और अगर वैश्विक तापमान इतना बढ़ जाता है तो भीषण गर्मी, भयंकर बाढ़ और सूखे की स्थिति पैदा होगी। पहाड़नुमा कूड़े के ढ़ेरों से निकलती जहरीली गैसें, औद्योगिक इकाईयों से निकलते जहरीले धुएं के अलावा सड़कों पर वाहनों की बढ़ती संख्या भी कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है और कहा जाता रहा है कि अगर दिल्ली जैसे अत्यधिक प्रदूषित शहर में वायु प्रदूषण पर कुछ नियंत्रण पाना है
तो लोगों को निजी वाहनों का प्रयोग कम कर सार्वजनिक परिवहन को अपनाना चाहिए किन्तु धरातल पर देखें तो दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के साधन बहुत सीमित हैं, सड़कों पर बसों की भारी कमी है और जितनी बसें चल रही हैं, उनमें यात्री अक्सर जानवरों की भांति ठूंसे नजर आते हैं। बहरहाल, धरती के गर्म होते जाने और प्रकृति के बढ़ते प्रकोप की जड़ हम स्वयं ही हैं लेकिन बार-बार प्रकृति द्वारा अपना रौद्र रूप दिखाते रहने के बावजूद हम समझना ही नहीं चाहते कि प्रकृति का मिजाज क्यों बदलता जा रहा है। हमें समझना होगा कि प्रकृति हमसे चाहती क्या है। प्रकृति ने शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, शुद्ध वनस्पतियां, फल-फूल इत्यादि हमें बहुत सारी अनमोल चीजें दी हैं किन्तु हमने अपने निहित स्वार्थों के चलते प्रकृति की दी हुई हर चीज का जायका बिगाड़ दिया है। प्राकृतिक सम्पदाओं का बुरी तरह से दोहन कर हमने न हवा को सांस लेने लायक छोड़ा है, रसायन और गंदगी बहा-बहाकर न पावन नदियों को निर्मल व पवित्र छोड़ा है, खेतों में यूरिया सहित अन्य कीटनाशकों का छिड़काव कर अपने ही भोजन को विषाक्त बना लिया है। इसमें भला प्रकृति का क्या दोष? प्रकृति तो हमें समय-समय पर सचेत करती रही है कि हम समय रहते संभल जाएं अन्यथा प्रकृति के साथ खिलवाड़ के परिणाम इतने विनाशकारी होंगे कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।
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