आखिर वह समय कब आएगा जब देश का भविष्य स्कूली वाहनों की तकनीकी खामी और इंसानी सोच के अमानवीय पहलुओं से आजाद हो पाएगा? कभी ऐसा वक्त आएगा भी जब आजाद देश में देश के नौनिहाल भी आजादी के हक के साथ सांसें ले सकेंगे या फिर हर घटना के बाद सिर्फ हम कहते रहेंगे, कि काश! यह घटना बच्चों के साथ आखिरी घटना हो।
पिछले दिनों हमारे समाज में कुछ घटनाएं ऐसी घटीं। जिसने पुराने घाव को पुन: कुरेद दिया। साथ में यह सोचने को मजबूर किया, कि वक्त के साथ हम अपने अतीत से सबक कब लेंगे? इक्कीसवीं सदी के भारत में किसी की जान की कोई कीमत लोकतांत्रिक व्यवस्था में मालूम नहीं पड़ती तो वह है देश के नौनिहालों की। आए दिन व्यवस्था के साए तले नौनिहालों की मौत का सिलसिला लगातार जारी है, लेकिन न व्यवस्था अपनी चिरनिद्रा से जाग पा रही और न ही प्रशासन अपनी सजगता दिखा पा रहा। तभी तो बच्चे बदलते भारत में अपनी जिंदगी गंवा रहे और व्यवस्थाएं आधुनिक भारत का दिवास्वप्न दिखाकर ही अपनी दुकान जमाए बैठी हैं।
पिछले दिनों तीन खबरें आई। जिसने अभिवावकों के माथे पर शिकन ला दिया कि आखिर उनके बच्चों का जीवन कब सुरक्षित हो पाएगा? आज के समय में घर से बच्चे स्कूल को तो निकलते हैं, लेकिन अभिवावकों को यही चिंता रहती है कि उनके बच्चे सुरक्षित घर पहुचेंगे या नहीं! पहली घटना पंजाब के लोंगेवाला की है, जहां पर स्कूल वैन में आग लगती है और देश के भविष्य और राष्ट्र की संपत्ति कहलाने वाले 4 बच्चे जिंदा जल गए। अव्यवस्था और नियमों की अवहेलना तो देखिए हुजूर। जिस वैन में 4 बच्चे जलकर मरे, उसे एक दिन पहले ही कबाड़ से खरीदा गया था।
ऐसी खबरें मीडिया का हिस्सा बनी। अब ऐसे में सवालों की लंबी फेहरिस्त उत्पन्न होती है, लेकिन जिस देश की शासन व्यवस्था ही गूंगी बहरी हो जाए। फिर अंधा कानून और नियमों को ताक पर रखने वालों की फौज तो बढ़ेगी ही। आज स्थिति यह होती जा रही, नौनिहाल सुबह घर से निकलते तो हैं भविष्य सुनहरा करने का जज्बा लेकर, लेकिन घर दोपहर सही-सलामत आएंगे की नहीं, इसकी गारंटी न स्कूल प्रशासन अभिवावकों को दे पा रहा और न ही वाहन चालक, जो बड़े दुर्भाग्य की बात है। दूसरी घटना, हरियाणा के पंचकूला की है। जहां चार साल की बच्ची से बस में दुष्कर्म किए जाने का मामला प्रकाश में आया है। स्कूल बस चालक पर बच्ची से बस में दुष्कर्म किए जाने का आरोप है। वहीं तीसरी घटना पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के पास पोलबा में हुई पूलकार दुर्घटना की है। जहां गाड़ी इतने स्पीड में होती है कि वह नाले में पलट जाती है और दो बच्चों के फेफड़ों में गन्दा पानी भर जाता है। इसके अलावा कुछ बच्चों को भारी मशक्कत के बाद किसी तरह बचा लिया जाता है।
वैसे ये हालिया दौर की तीन घटनाएं निकृष्ट होते समाज के लिए उदाहरण मात्र हैं। ऐसी घटनाएं विश्व गुरु बनने को लालायित देश में रोजाना का दस्तूर बनती जा रही है। मीडिया रिपोर्ट में ऐसी खबरें आए दिन आती है, किसी दिन किसी की बच्ची आधुनिक होते भारत के हवसी दरिंदों के पंजों में आकर अपना सबकुछ गंवा बैठती है, तो कभी स्कूली वाहनों की तकनीकी खराबी नौनिहालों के जीवन से खेल खेलती है। ये खेल आए दिन का होता जा रहा, लेकिन समाज भी ऐसा होता जा रहा, जो मूकदर्शक बन अपनी बारी का इंतजार करता फिर रहा। जो बड़े दुर्भाग्य की बात है। मानते हैं मानवीय सोच का क्रूरतम रूप और स्कूली वाहनों की तकनीकी खामी आज हमारे और आपके अपने बच्चों के जीवन के लिए खतरा नहीं, लेकिन जब समाज के लिए ऐसी घटनाएं रवायत बन जाएगी। फिर क्या हमारा और क्या आपका? उससे अछूता शायद कोई बचे। फिर हम आज ही क्यों नहीं ऐसी अमानवीय करतूतों के खिलाफ हल्ला बोलने को तैयार होते?
पंजाब के लोंगेवाला की दुर्घटना का शिकार हुई स्कूल वैन कबाड़ से खरीदी गई थी। हरियाणा के पंचकूला जिले में जिस स्कूल बस में बच्ची से दुष्कर्म हुआ, उस बस पर महिला अटेंडेंट नहीं थी। इसके अलावा पश्चिम बंगाल के मामले में भी पूलकार खटारा हालात में भी 100 से ऊपर की स्पीड में हवा में बातें कर रही थी। ऐसे में ये घटनाएं सच में अक्षम्य और बदलते भारत की तस्वीर को धुंधला करने वाली हैं, लेकिन किसी को फर्क कहाँ पड़ता है अब इन बातों से। अवाम इसलिए चुप रहती, कि उनके बच्चे आज चपेट में आए नहीं। इसलिए वे अपनी बारी का इंतजार करते हैं। स्कूल प्रशासन को फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें व्यवस्था में होल कहाँ कहाँ ये पता है। साथ में उन्होंने तो पैसा उगाने का वृक्ष बना लिया है स्कूल-कॉलेज को। बच्चे पढ़ें या मरें, उन्हें तो सिर्फ पैसे उगाही से मतलब है। देश और समाज सेवा जाए चूल्हे में।
इसके अलावा उच्चतम न्यायालय कहता है कि किसी स्कूल की बस की खिड़की आड़ी जाली वाली नहीं होनी चाहिए। बस के दरवाजे बेहतर गुणवत्ता के और बच्चों के सीट के बीच पर्याप्त जगह होनी चाहिए। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के 1997 में दिए गए एक फैसले का जिक्र करके सीबीएसई के डिप्टी सेक्रेटरी के श्रीनिवासन ने 2017 में एक सर्कुलर जारी किया था। जिसके मुताबिक स्कूल बस में सफर करने वाले हर बच्चे की जिम्मेदारी स्कूल प्रशासन की है। लेकिन स्कूल आज भी वह जिम्मेदारी निभाते हुए नजर नहीं आता, तभी तो स्कूली बच्चे आज भी सड़क हादसे का शिकार होते है, सर्कुलर में कहा गया था कि स्कूल बस की स्पीड 40 से अधिक नहीं होगी, लेकिन इस बात को मानता कौन है? स्टेरिंग एक बार हाथ में आने के बाद। इसके अलावा बस में जीपीएस, स्पीड गवर्नर और सीसीटीवी कैमरे की बात भी हुई थी। क्या आज इन बातों पर पूर्णत: अमल हो पाया है। बिल्कुल नहीं, तभी तो आए दिन हादसे हो रहे।
ऐसे में जब अभिवावक अपने बच्चों को स्कूल प्रशासन के भरोसे छोड़ता है, तो उम्मीद करता है कि उसके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हाथों में है। इस भरोसे को कायम रखने की जिम्मेदारी स्कूल प्रशासन की होनी चाहिए, वरना शिक्षा के मंदिर से लोगों का भरोसा उठता जाएगा और शिक्षा देने जैसा परमार्थ का कार्य ठेकेदारी में तब्दील हो जाएगा। ऐसे में स्कूली वाहनों को लेकर जारी गाइडलाइंस का शत-प्रतिशत पालन करना स्कूल प्रशासन शुरू करें। बच्चों को अपने बच्चों जैसा समझना शुरू करें। इसके अलावा स्कूल में जो भी कर्मचारी हो, चाहे वे बस चालक ही क्यों न हों उन्हें समय समय पर प्रशिक्षित करने के अलावा नैतिक शिक्षा का ज्ञान दें, ताकि न स्कूली बच्चे सड़क हादसे का शिकार हों न किसी की बदनीयत का। हां यहां एक बात और आवाम भी किसी बच्चे के साथ हुए दुर्व्यवहार या दुर्घटना को लेकर सामूहिक रूप से मुखर होना सीख ले। साथ ही साथ राजनीति के शूरवीर और जनता के सेवक भी अपनी जिम्मेदारी समझें। वह सिर्फ नियम बनाकर फूलकर कुप्पा होने की नीयत छोड़ दें। कानून को कड़ाई से लागू करना उनका फर्ज बनता है। तभी नौनिहालों की जिंदगी बच पाएगी। वरना सुनहरे भविष्य का सपना लिए नौनिहाल सड़कों पर दम तोड़ते रहेंगे और किसी के घर का दीपक बुझाकर स्कूल-कॉलेज को चलाने वाले अपना घर भरते रहेंगे।
भूलिए नहीं स्कूली बच्चों के साथ एक भयानक दुर्घटना इंदौर में 2018 के शुरूआती दौर में भी हुआ था। उससे पूर्व में उत्तरप्रदेश के एटा जिले की सड़कों पर स्कूली बच्चों के खून के साथ होली स्कूली वाहन ने खेल था। उस दौरान बातें हुईं थी। अब प्रशासन और व्यवस्थाएं इससे सीख लेकर ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने की भरपूर कोशिश करेंगी, लेकिन यह इक्कीसवीं सदी का भारत है। यहां बातों से पेट भरा जाता है, हकीकत में काम तो सिर्फ कागजों पर ही नजर आता है। एटा में हुए सड़क हादसे में दो दर्जन से अधिक बच्चे काल के गाल में समा गए थे। फिर भी तब से अब तक क्या-क्या नहीं बदला? तारीख बदल गई, साल बदल गया और बदल गया परिवेश, लेकिन कुछ नहीं बदला तो वह है अभिवावकों के माथे पर चिंता की छाई लकीर। नहीं बदला तो कुंभकर्णी निंद्रा वाली व्यवस्था के कार्य करने का तरीका। तभी तो जो सवाल उस दौरान उठ रहें थे। आज वे और प्रासंगिक हो गए हैं, कि आखिर वह समय कब आएगा जब देश का भविष्य स्कूली वाहनों की तकनीकी खामी और इंसानी सोच के अमानवीय पहलुओं से आजाद हो पाएगा? कभी ऐसा वक्त आएगा भी जब आजाद देश में देश के नौनिहाल भी आजादी के हक के साथ सांसें ले सकेंगे या फिर हर घटना के बाद सिर्फ हम कहते रहेंगे, कि काश! यह घटना बच्चों के साथ आखिरी घटना हो।
यहां आंकड़ों के माध्यम से करुण क्रदन किया जाएं, तो मिनिस्ट्री आफ स्टेटिस्टिक्स एन्ड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन के डेटा के मुताबिक 2001 में जहां सड़क दुर्घटना में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 19 हजार स्कूली बच्चों की मौत हुई। वहीं यह आंकड़ा 2012 आते-आते 21 हजार को पार कर जाता है। ऐसे में जब हम आज 2020 में जी रहें हैं। फिर आज के दौर में ये आंकड़े और भयावह ही होंगे। ये बात हुई तकनीकी खराबी और मानवीय भूल के कारण हुए हादसों में जान गंवाने वाले नौनिहालों के आंकड़े की। इसके अलावा जिस दूसरी घटना यानी हरियाणा के पंचकुला में स्कूली बस के ड्राइवर द्वारा किए गए दुष्कर्म की शुरू में की थी। ऐसी घटनाओं से तो अखबारी पन्ने आज के दौर में भरे पड़े रहते।
चलिए ऐसे में एक दफा मान लेते स्कूली वाहन से हुई दुर्घटना पर मानव का काबू नहीं हो सकता, लेकिन अपने आप पर तो उसका काबू होना चाहिए न! फिर वह क्यों अपनी सामाजिकता खो रहा? आदमी तो मशीन नही है। जिस पर उसका नियंत्रण नहीं। फिर वह अपनी इच्छाओं पर काबू क्यों नहीं कर पा रहा? चलिए एक दफा यह भी मान लिया आदमी है, उनसे गलती हो जाती है, तो क्या ऐसा घटिया कृत्य करने वाले लोग अपनी मां, बहन और बेटी के साथ भी ऐसा होते हुए बर्दाश्त कर लेगें? उत्तर शत-फीसदी नकारात्मक ही होगा। फिर वे दूसरे की बच्चियों के साथ ऐसा घिनौना कृत्य करने से पूर्व क्यों दो बार अपने और अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते?
महेश तिवारी
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