आरक्षण पर राजनीति व दुष्प्रचार कब तक होता रहेगा

Politics on Reservation

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी के लिए 50 फीसद सीटें आरक्षित किए जाने की माँग को लेकर दायर याचिका को सुनने से इनकार कर दिया। याचिकाकतार्ओं ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि अदालत केंद्र सरकार और मेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया को निर्देश दे कि वो तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग, एससी एंड एसटी आरक्षण एक्ट, 1993 को लागू करे। आरक्षण को लेकर देश लगातार सुलगता रहा है मगर आज तक इसका कोई सर्व मान्य हल नहीं निकल पाया है। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर बड़ी टिप्पणी करते हुए एक बार फिर स्पष्ट रूप से कहा है कि आरक्षण किसी का भी मौलिक अधिकार नहीं है। इसके बावजूद राजनीतिक पार्टियां आरक्षण को वोट बैंक मानकर इसे लगातार भुनाती आ रही हैं।

कोर्ट ने कहा कि तमिलनाडु की सभी राजनीतिक पार्टियां राज्य के ओबीसी के कल्याण के लिए एक साथ मिलकर आगे आई हैं, यह असामान्य बात है लेकिन आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। संविधान निमार्ताओं ने दलितों-पिछड़ों को समाज में बराबरी का दर्जा देने की मंशा से आरक्षण लागू किया था। मगर संविधान की भावना पर सियासत भारी पड़ी। आरक्षण को लेकर देश में शुरू से ही दुविधा की स्थिति हो रही है। दरअसल आरक्षण में व्याप्त विसंगतियां राजनीतिक पार्टियों की सोच का नतीजा हैं, जिनके लिए आरक्षण अपनी सत्ता बचाए रखने का औजार है। हमारे देश में आरक्षण पर राजनीति और दुष्प्रचार कब तक होता रहेगा।

यह एक ज्वलन्त विषय है, जो अभी तक भी आम जनता की समझ से परे नजर आ रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और सामाजिक न्याय बराबरी की बेसिक चीजें हैं। आरक्षण उस तक पहुंचने का एक तरीका भर है, मगर कोई मौलिक अधिकार नहीं है। आरक्षण को तब तक ही लागू रखा जाना आवश्यक प्रतीत होता है, जब तक कि इस प्रकार के आरक्षण के लिए धरातल पर यथोचित आधार हैं। मगर हमारे यहां मामला सिर्फ जातिगत आरक्षण के आधार पर टिका हुआ है। यद्यपि जातिगत आरक्षण जारी है। शिक्षा और नौकरी में प्रवेश के स्तर पर आरक्षण अभी तक कायम है। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ और सिर्फ इस बात पर निर्णय दिया है कि प्रमोशन के दौरान आरक्षण दिया जाना कोई आवश्यक नहीं। इसके बावजूद पूर्वाग्रह तथा दुष्प्रचार सिर्फ स्वार्थ की राजनीति है और सामाजिक व्यवस्था के लिए यह सब विषम साबित होता जा रहा है।

 

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