सुशांत राजपूत की मौत का मामला इतना तूल पकड़ेगा यह किसी को अंदाजा नहीं था। दरअसल जिस मुद्दे का मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है फिर वह मुद्दा इसी प्रकार घसीटा जाता है। लेकिन सुशांत राजपूत की मौत के मामले में मीडिया ट्रायल तो हो ही रहा था इसी बीच इसमें राजनीति भी होने लगी। राजनीति के जानकार इसे बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के संदर्भ में देख रहे थे। इसी दौरान मशहूर अभिनेत्री कंगना रानौत भी इस ज्वलंत मामले में कूद पड़ी। कंगना ने इस मामले में मूवी माफिया और ड्रग्स माफिया को जोड़कर बॉलीवुड व मुंबई की राजनीति में बवंडर ला दिया। कंगना ने ट्वीटर पर जब मुंबई को पाक अधिकृत कश्मीर कहा तो शिवसेना नेता संजय राऊत का गुस्सा फूट पड़ा और कंगना को मुंबई न आने की धमकी दे दी। कंगना ने भी शिवसेना के स्टाईल में भड़काऊ ब्यानों की झड़ी लगा दी और 9 सितम्बर को मुंबई आने की घोषणा कर दी और कहा हो सके तो रोक लो।
भाजपा ने भी मौके का फायदा उठाया और कंगना को वाई श्रेणी की सुरक्षा प्रदान कर उसे और मुखर होकर बोलने का अवसर दे दिया। शिवसेना ने अपने स्वभाव के अनुरूप तोड़फोड़ की नीति अपनाई। इस बार शिवसेना चूंकि सत्ता में है इसीलिए तोड़फोड़ के लिए बीएमसी का सहारा लिया और आनन-फानन में कंगना के मुंबई स्थित दफ्तर को तोड़ दिया। हालांकि कंगना को मुंबई उच्च न्यायालय से स्टे भी मिल गया था लेकिन इसके बावजूद बीएमसी कंगना के दफ्तर में काफी तोड़फोड़ कर चुकी थी। बीएमसी की इस प्रकार की कार्यवाई कोई नई नहीं है। इससे पहले भी वीएमसी शाहरूख खान, कपिल शर्मा आदि के ठिकानों पर तोड़फोड़ कर चुकी है। दूसरी तरफ कंगना के मुंबई पहुंचने पर जिस प्रकार शिव सैनिकों ने कंगना के विरोध में और रामदास अठावले की पार्टी व करणी सेना ने कंगना के समर्थन में हुल्लड़बाजी की। यह घटनाक्रम देश का दुर्भाग्य है।
इस प्रकार के घटनाक्रम आखिरकार क्यों होते हैं, यह चिंता और विचार करने का विषय है। जब जांच एजेंसियां शक के घेरे में आती हैं और जनता का विश्वास खोने लगती है और न्यायपालिका से न्याय की उम्मीद कम होने लगती है तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी होती है। जो शायद अब बज रही है। अभिव्यक्ति की आजादी सही है, अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में किसी की भावनाओं को रौंदना गलत है। सत्ता की शक्ति का प्रयोग विकास और रक्षा की भावना से हो न कि बदले की भावना से।
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