7 अगस्त की शाम दिल्ली में हुई कुछ देर की मूसलाधार बारिश में ही दिल्ली और आसपास के इलाकों में हालात पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गए। कुछ दिनों पूर्व भी लगातार तीन-चार दिन की ही बारिश के चलते देश के कई शहरों में बहुत बदतर हालात देखे गए थे, जगह-जगह सड़कें धंस गई थी, कारों की छतों पर पानी भर गया था, कई जगहों पर मकान ढ़ह गए थे, यमुना खतरे के निशान से ऊपर पहुंच गई थी, बारिश के चलते दर्जनों लोगों की मौत हो गई थी। इन हालातों ने हर साल की भांति एक बार फिर बाढ़, जल निकासी और ऐसे हालातों से निपटने के सारी तैयारियां कर लेने के दावों की कलई खोलकर रख दी।
एम समय था, जब मानसून अथवा वर्षा ऋतु के दौरान लोगों का उत्साह देखते ही बनता था किन्तु अब तो यह एक गुजरे जमाने की ही बात लगती है, जब मानसून की बारिश लगातार कई-कई दिनों तक रूकने का नाम नहीं लेती थी और खेत-खलिहान, सड़कें हर कहीं पानी ही पानी नजर आता था लेकिन तब भी हम उस मौसम का भरपूर आनंद उठाते थे। तब गांव हो या शहर, हर कहीं बड़े-बड़े तालाब और गहरे-गहरे कुएं होते थे और पानी अपने आप धीरे-धीरे इनमें समा जाता था, जिससे भूजल स्तर भी बढ़ता था लेकिन अब विकास की अंधी दौड़ में तालाबों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतों ने ले ली है, शहर कंक्रीट के जंगल बन गए हैं, अधिकांश जगहों पर कुओं को मिट्टी डालकर भर दिया गया है।
बदइंतजामी और साथ ही प्रकृति के बदले मिजाज के चलते अब हर साल देशभर में प्रचण्ड गर्मी के बाद बारिश रूपी राहत को आफत में बदलते देर नहीं लगती और तब मानसून को लेकर हमारा सारा उत्साह काफूर हो जाता है। पिछले कुछ वर्षों से हम लगातार यही देखते आ रहे हैं कि मानसून दोनों ही रूपों में कहर बरपा रहा है, कहीं बहुत कम बरसकर सूखे के हालात पैदा कर और कहीं जरूरत से ज्यादा बरसकर बाढ़ की विभीषिका उत्पन्न कर।
दरअसल हमारी फितरत कुछ ऐसी हो गई है कि हम मानसून का भरपूर आनंद तो लेना चाहते हैं किन्तु इस मौसम में किसी भी छोटी-बड़ी आपदा के उत्पन्न होने की प्रबल आशंकाओं के बावजूद उससे निपटने की पूरी तैयारियां नहीं कर पाते। यह ऐसा खुशनुमा मौसम है, जब प्रकृति हमें भरपूर पानी देती है किन्तु पानी की कमी से बुरी तरह जूझते रहने के बावजूद हम इस पानी को सहेजने के कोई कारगर इंतजाम नहीं करते और यह पानी व्यर्थ ही बहकर समुद्रों में समा जाता है। हालांकि ‘वाटर हार्वेस्टिंग (वर्षा जल को विशेष तरीके से संचित करने की प्रणाली) का शोर तो बहुत सुनते रहे हैं लेकिन ऐसी योजनाएं अभी तक सिरे नहीं चढ़ी हैं।
हमारी नाकारा व्यवस्थाओं के चलते चंद घंटों की बारिश में ही दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बेंगलुरू जैसे बड़े-बड़े शहरों में भी प्राय: जलप्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। हल्की सी बारिश क्या हुई, सड़कों पर पानी भर जाता है, गाड़ियां रेंग-रेंगकर चलने लगती हैं, रेल तथा विमान सेवाएं प्रभावित होती हैं, सड़कें धंस जाती हैं, जगह-जगह जलभराव होने से पैदल चलने वालों का बुरा हाल हो जाता है। यह कोई एक साल की बात नहीं है बल्कि हर साल यही नजारा सामने आता है लेकिन स्थानीय प्रशासन द्वारा ऐसे पुख्ता इंतजाम कभी नहीं किए जाते, जिससे लोग बारिश का भरपूर आनंद उठा सकें और बारिश के पानी का संचयन किया जा सके।
देश की आजादी के बाद दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्र ही बाढ़ की विभीषिका झेलने के लिए जाने जाते थे किन्तु विकास के कई सोपान तय करने के बावजूद देश में हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि हर साल हमारे विकसित शहर भी अब बाढ़ जैसी आपदा से त्रस्त हो रहे हैं और हम ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। कहना गलत न होगा कि अमेरिका, जापान, चीन सरीखे देशों की तुलना में आपदा प्रबंधन के मामले में हम कोसों पीछे हैं।
माना कि प्रकृति के समक्ष हम बेबस हैं किन्तु सदैव यही देखा जाता है कि हर प्राकृतिक आपदा के समक्ष उससे बचाव की हमारी समस्त व्यवस्था ताश के पत्तों की भांति ढ़ह जाती है। ऐसी आपदाओं से बचाव तो दूर की कौड़ी है, हम तो मानसून में सामान्य वर्षा होने पर भी बारिश के पानी की निकासी के मामले में साल दर साल फेल होते रहे हैं। हमारी व्यवस्था का काला सच यही है कि देशभर के लगभग तमाम राज्यों में प्रशासन के पास पर्याप्त बजट के बावजूद प्रतिवर्ष छोटे-बड़े नालों की सफाई का काम मानसून से पहले अधूरा रह जाता है, जिसके चलते ऐसे हालात उत्पन्न होते हैं।
कई जगहों पर देखा जाता है कि मानसून से पहले नालों की सफाई के दौरान सैंकड़ों मीट्रिक टन सिल्ट निकालकर उसे नाले के करीब ही छोड़ दिया जाता है, जो तेज बारिश के दौरान दोबारा बहकर नाले में चली जाती है और थोड़ी सी बारिश में ही ये नाले उफनते लगते हैं। कागजों में नालों की साफ-सफाई का कार्य पूरा हुआ दर्शा दिया जाता है जबकि वास्तविकता यही है कि हर साल प्रशासन के खोखले दावों और आधी-अधूरी तैयारियों के चलते जनता को ढ़ेरों परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।
आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में 1950 के दशक में प्रति व्यक्ति 5220 घन मीटर पानी उपलब्ध था किन्तु जल संकट की अनदेखी और औद्योगिकीकरण की अंधी दौड़ के चलते आज यह मात्र 1588 घन मीटर रह गया है और 2025 तक यह 1100 घन मीटर प्रति व्यक्ति रहने का अनुमान है। जल प्रबंधन के मामले में हम कितने पिछड़े हैं, इसका सहज अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि देश में प्रतिवर्ष 1869 नदियों, बर्फ पिघलने तथा वर्षा के जल से करीब चार हजार घन किलोमीटर जल एकत्रित होता है किन्तु उसमें से हम सिर्फ 1123 घन किलोमीटर का ही उपयोग कर पाते हैं।
शेष पानी जल प्रबंधन के अभाव में नालों व नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। भारत में पानी की कमी की समस्या कितनी विकराल हो चुकी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में जहां दुनिया की करीब 17 फीसदी आबादी रहती है, वहां दुनिया में उपलब्ध जल का महज चार फीसदी हिस्सा ही मौजूद है। हम अपनी स्कूली किताबों में भी पढ़ते रहे हैं कि पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से पर पानी भरा है किन्तु इसमें से 97 फीसदी पानी समुद्रों में है और सिर्फ तीन फीसदी ही पीने लायक है और उसमें से भी दो फीसदी ग्लेशियरों के रूप में उपलब्ध है। आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में करीब 1.1 अरब लोग जल संकट से जूझ रहे हैं।
अगर हमें पानी की विकराल होती समस्या से बचना है तो इसके लिए सबसे बड़ा उपाय यही है कि धरती रूपी गुल्लक में बारिश का पानी जमा करने के उपाय किए जाएं लेकिन इस कार्य में भी सबसे बड़े बाधक हम स्वयं ही बन रहे हैं। तेज बारिश आने पर हम अपने घरों का कूड़ा-कचरा पॉलीथिन की थैलियों में बांधकर नालियों में बहा देते हैं, जिससे प्राय: नालियां चोक हो जाती हैं और शहर हो या गांव, बारिश का थोड़ा सा पानी इक्कठा होने पर भी उफनने लगती हैं, जिससे थोड़ी बारिश में भी जलभराव की स्थिति बन जाती है।
यही हाल हमने नदियों का भी कर डाला है, औद्योगिकीकरण और जनसंख्या विस्फोट के चलते तालाबों को हमने रिहायशी स्थानों में परिवर्तित कर दिया है और नदियों में इतना कचरा भर दिया है कि वे भी थोड़े से अतिरिक्त पानी से उफनने लगती हैं तथा तेज बारिश होने पर हालात बाढ़ जैसे बन जाते हैं। नदियों में गंदगी व कचरा भरा होने के कारण बारिश का अतिरिक्त पानी इनके रास्ते समुद्रों में समा जाता है और धरती प्यासी ही रह जाती है।
हमें भली-भांति यह समझ लेना होगा कि भूजल का गिरता स्तर ही देश में पेयजल संकट के बढ़ने का प्रमुख कारण है। जिस प्रकार बच्चे अपनी गुल्लक में अभिभावकों से मिले थोड़े-थोड़े पैसों को एकत्रित करते हैं और जरूरत पड़ने पर बचत के उन पैसों का उपयोग किया जाता है, ठीक उसी प्रकार धरती रूपी गुल्लक में पानी एकत्रित करने की आवश्यकता है, जिसका उपयोग जरूरत पड़ने पर आसानी से किया जा सकता है किन्तु इसके लिए पहले की भांति जगह-जगह बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण करना होगा, नदियों को साफ-सुथरा बनाने के लिए बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना होगा और जलस्रोतों को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ कड़ी सजा का प्रावधान करना होगा।
-योगेश कुमार गोयल
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें