नेशनल हाउसिंग बैंक के आंकड़ों के मुताबिक देश की तकरीबन 50 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को छत नसीब नहीं है। 2011 की जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार 177 लाख यानी 0.15 प्रतिशत लोग फुटपाथ, रेलवे प्लेटफार्म या फ्लाईओवर के नीचे जीवन गुजारने को विवश हैं।
चूंकि केंद्र सरकार ने 2022 तक देश के सभी नागरिकों के सिर पर छत मुहैया कराने का वादा किया है और अगर वह इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो उसे हर वर्ष तकरीबन 1.25 करोड़ आशियानों का निर्माण करना होगा।
गत वर्ष पहले योजना आयोग के मुख्य सलाहकार प्रणव सेन की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा कि वर्ष 2011 में देश के शहरों में झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोगों की आबादी 9 करोड़ से अधिक होगी। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई। आज देश की 15 करोड़ से अधिक आबादी झुग्गी-बस्तियों में रह रही है।
संयुक्त राष्ट्र समर्थित एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2031 तक देश की शहरी आबादी 60 करोड़ होने का अनुमान है। अर्थव्यवस्था और वातावरण पर केंद्रित वैश्विक आयोग की नई रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो दशकों में भारत की शहरी आबादी 21 करोड़ 70 लाख से बढ़कर 37 करोड़ 70 लाख हो चुकी है, जो 2031 तक 60 करोड़ हो जाएगी।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरों के किनारे पर बस रहे नए शहरों की बसावट में कोई योजना नहीं है और इनके निर्माण में शहरी मानकों और कानूनों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। नए शहर अनियंत्रित विकास को बढ़ावा दे रहे हैं।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि नए शहरों के विकास के लिए अगले बीस साल में करीब पांच लाख करोड़ रुपए की जरुरत पड़ेगी, जिसका दो तिहाई केवल शहरी सड़कों और यातायात पर खर्च होगा। रिपोर्ट में आशंका जाहिर की गयी है कि तेज गति से बढ़ रही शहरी आबादी को नियंत्रित नहीं किया गया, तो 2050 तक शहरी वायु प्रदुषण से मौतों में वृद्धि होगी।
इससे बचने के लिए सबसे जरुरी है ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन को रोकना और गांवों में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना। सरकार ने गांवों में रोजगार बढ़ाने के उद्देश्य से मनरेगा योजना प्रारंभ की, लेकिन योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार ने इस पर पानी फेर दिया।
ग्राम प्रधानों और सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से जरुरतमंदों को योजना का परिणामकारी लाभ नहीं मिल रहा। नतीजतन, वे रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। अगर गांवों में कृषि आधारित उद्योग-धंधे और कल-कारखानें विकसित किए जाएं, तो लोगों को रोजगार मिलेगा और वे शहर आने से बचेंगे। गांवों से पलायन से ही शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है।
लोग सड़कों के किनारे, मलिन बस्तियों और गंदगी भरे स्थानों में रहने को मजबूर हैं। सरकार को बेघरों को आवास उपलब्ध कराने से पहले झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोगों की आबादी निर्धारण का सटीक पैमाना सुनिश्चित करना होगा।
सरकारें देशभर के शहरों में एजेंसियां-प्राधिकरणों के जरिए गरीबों को आवास देने के लिए बड़े पैमाने पर जमीनें अधिग्रहित करती हैं, लेकिन सच्चाई है कि उसका लाभ सारे जरुरतमंदों को नहीं मिलता।
बेहतर होगा कि सरकार ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बेघरों को आवास उपलब्ध कराने के साथ एक निगरानी तंत्र भी विकसित करे, जो सुनिश्चित करे कि योजना भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ सके।
दोराय नहीं कि केंद्र व राज्य सरकारें गांवों और शहरों में गरीबों के कल्याण के लिए अनगिनत योजनाएं चला रही हैं, लेकिन विडंबना है कि सूचना अधिकार कानून के बावजूद भी इन योजनाओं में आए दिन भ्रष्टाचार की खबरें उजागर हो रही हैं। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि केंद्र व राज्य सरकारें बेघरों को आवास उपलब्ध कराने की मानवीय योजना को मूर्त रुप देने के लिए दीर्घकालीन पारदर्शी रणनीति तैयार करें, ताकि योजना का उद्देश्य फलीभूत हो सके।
-अभिजीत मोहन
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।