समय की कसौटी पर भारत-अमेरिका संबंध

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इतिहास के गर्भ में जाएं तो आजादी से पूर्व भारत और अमेरिका के संबंध बेहतर नहीं थे। उसका प्रमुख कारण दोनों देशों के बीच लाखों मील की दूरी और ब्रिटिश शासकों की कुटिल कूटनीति थी जो भारत को अन्य देशों के सम्पर्क में आने देना नहीं चाहते थे। द्वितीय विश्वयुद्घ के समय तक अमेरिकी नागरिकों की भारत के बजाए चीन और जापान में कहीं ज्यादा दिलचस्पी थी।

संयुक्त राज्य अमेरिका का आप्रवास नियम भी भारतीय हितों के विरुद्घ था। इस नियम के तहत भारतीय लोगों का अमेरिका में बसना दुष्कर कार्य था। हालांकि कहा जाता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए इंग्लैंड पर दबाव बनाया था। लेकिन सच यह है कि रुजवेल्ट ने भारत को बहुत सीमित औपनिवेशिक स्वराज दिए जाने के पक्षधर थे।

याद रखना होगा कि 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए जब ब्रिटिश सरकार ने अमेरिकी फौजों का उपयोग किया तो अमेरिका की सरकार ने इसका विरोध नहीं किया। 1945 के सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में सोवियत विदेशमंत्री ने मुखर रुप से भारत को स्वतंत्रता दिए जाने की बात कही लेकिन अमेरिकी प्रतिनिधियों ने चुप्पी साध रखी थी।

स्वतंत्रता के उपरांत भारत-अमेरिकी संबंधों की नींव जरुर पड़ी, लेकिन उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को लेकर दोनों देशों के बीच दूरियां बनी रही। भारत साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और रंगभेद के खिलाफ था, जबकि अमेरिका खुलकर ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन व हालैंड जैसे साम्राज्यवादी राष्ट्रों का समर्थन कर रहा था।

भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति भी अमेरिका को पसंद नहीं थी। भारत की गुटनिरपेक्ष नीति के कारण ही तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति निक्सन ने प्रतिक्रियास्वरुप पाकिस्तान को सैनिक सहायता देने की वकालत की। दिसंबर 1947 में भारत द्वारा कश्मीर विवाद को संयुक्त राष्ट्रसंघ में समाधान के लिए प्रस्तुत किए जाने पर अमेरिका ने उसका खुलकर समर्थन किया।

1950 के कोरिया युद्ध में अमेरिका के समर्थन में भारतीय सैनिक दस्ते का शामिल न होना, 1952 में भारत-जापान संधि, 1954 में पाकिस्तान-अमेरिका संधि, गोवा का प्रश्न ऐसे ढेरों कारण थे जिससे भारत-अमेरिका के बीच तनातनी बनी रही।

जुलाई, 2005 में भारत के प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह की अमेरिकी यात्रा के दौरान नाभिकीय ऊर्जा समझौता हुआ। दिसंबर, 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने परमाणु सहयोग समझौते को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक विधेयक को मंजूरी दी और 10 अक्टूबर, 2008 को दोनों देशों ने वाशिंगटन में असैनिक नाभिकीय करार पर हस्ताक्षर किए।

इस समझौते ने भारत-अमेरिका को एक-दूसरे के निकट ला दिया। लेकिन परमाणु दायित्व कानून को लेकर अमेरिका की नाराजगी बनी रही। अमेरिका ने भारत और ईरान के बीच 4.2 बिलियन डॉलर की लागत से तैयार होने वाली प्रस्तावित गैस पाइप लाइन को लेकर भी ऐतराज जताया। लेकिन बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था की बढ़ती ताकत, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफल कूटनीति ने आर्थिक हितों की पूर्ति और शक्ति-संतुलन बिठाने के लिए अमेरिका को भारत के निकट आने के लिए विवश कर दिया है।

इसका श्रेय काफी हद तक भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है जिन्होंने अपने नेतृत्व के दम पर वैश्विक क्षितिज पर भारत की साख को मजबूत किया है। आज अगर अमेरिका भारत के साथ सैन्य समझौता को आकार देने के साथ एनएसजी में भारत की सदस्यता का खुलकर समर्थन कर रहा है तो यह रेखांकित करता है कि भारत की विदेश नीति में बदलाव के एक नए युग की शुरुआत हो चुकी है जिसके संवाहक नरेंद्र मोदी हैं।

-रीता सिंह

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