प्रकृति हो या मानव जीवन, समाज हो अथवा देश, सभी की उचित स्थिति सुख-समृद्धि तभी तक रह सकती है, जब तक उनमें पर्याप्त संतुलन बना रहे। लेकिन कुछ सालों से पर्यावरण पूरी तरह से असंतुलित हो गया है। पर्यावरण दिवस मनाने के मायने क्या हैं? इसको समझना अब इसलिए भी जरूरी हो गया है कि इस दिवस के मौके पर केंद्र सरकार व राज्य सरकारों की ओर से पर्यावरण को बचाने के लिए तमाम योजनाओं की शुरुआत की जाती है। लेकिन, दूसरे ही दिन भुला दी जाती हैं, जिसके चलते इस मुहिम का नतीजा कुछ नहीं निकलता और सभी योजनाएं दम तोड़ देती हैं। यह सब देखकर तो लगता है कि पर्यावरण दिवस सिर्फ परम्परा के तौर पर ही मनाया जाता है।
प्रकृति ने पृथ्वी पर जीवन के लिये प्रत्येक जीव की सुविधानुसार उपभोग संरचना का निर्माण किया है, परन्तु मनुष्य ऐसा समझता है कि इस पृथ्वी पर जो भी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, नदी, पर्वत व समुद्र आदि हैं, वे सब उसके उपभोग के लिये हैं और वह पृथ्वी का मनमाना शोषण कर सकता है।
यद्यपि इस महत्वाकांक्षा ने मनुष्य को एक ओर उन्नत और समृद्ध बनाया है, तो दूसरी ओर कुछ दुष्परिणाम भी प्रदान किये हैं, जो आज विकराल रूप धारण कर हमारे सामने खडे हैं। वर्षाजल के भूमि में न समाने से जलस्रोत सूख रहे हैं। नतीजतन, सैकड़ों की संख्या में गांवों को पेयजल किल्लत से जूझना पड़ रहा है, तो सिंचाई के अभाव में हर साल परती भूमि का रकबा बढ़ रहा है। नमी के अभाव में जंगलों में हर साल ही बड़े पैमाने पर लगने वाली आग से वन संपदा तबाह हो रही है।
जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं, लेकिन इसके अथाह दोहन ने जहां कई तरह से पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। कुछ साल पहले कई विशाल जलाशय बनाए गए थे। इनको सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़कर बनाया गया था, मगर वे भी अब दम तोड़ रहे हैं।
केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति सामने आने वाली है। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जलापूर्ति विशालकाय जलाशयों (बांध) की बजाए, जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर। बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रोत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियों का बर्चस्व खतरे में पड़ गया है।
देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा कुल वर्ष पहले तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षों के औसत भण्डारण से भी कम जल का भण्डारण हुआ है। गौरतलब है कि दिसंबर 2005 में केवल 6 जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरूआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है।
इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है। पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है। जिन जलाशयों में पानी की कमी है, उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मय प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, ओडिशा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं।
चार जलाशय तो ऐसे हैं, जो पिछले कुछ साल से लगातार पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के रिहंद जिले के जलाशय की स्थापित क्षमता 399 मेगावाट है। इसके लिए अप्रैल 2005 से जनवरी 2006 तक 938 मिलियन यूनिट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन वास्तविक उत्पादन 847 मिलियन यूनिट ही हो सका।
मध्यप्रदेश के गांधी सागर में भी इसी अवधि के लक्ष्य 235 मिलियन यूनिट की तुलना में मात्र 128 मिलियन यूनिट और राजस्थान के राणा प्रताप सागर में 271 मिलियन यूनिट के लक्ष्य की तुलना में सिर्फ 203 मिलियन यूनिट विद्युत का उत्पादन हो सका। अगर इस समस्या पर समय रहते गौर नहीं किया गया, तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के सामर्थ्य की बात नहीं रह जाएगी।
दैवीय पृथ्वी पर प्रकृति की शोभा के लिये पर्यावरण की सुरक्षा विकास का एक अनिवार्य भाग है। पर्यावरण की समुचित सुरक्षा के अभाव में विकास की क्षति होती है। इस क्षति के कई कारण हैं। यांत्रिकीकरण के फलस्वरूप कल-कारखानों का विकास हुआ। उनसे निकलने वाले उत्पादों से पर्यावरण का निरन्तर पतन हो रहा है। कारखानों से निकलने वाले धुएं से कार्बन मोनो अक्साइड और कार्बन डाई अक्साइड जैसी गैसें वायु में प्रदूषण फैला रही हैं, जिससे आंखों में जलन, जुकाम, दमा तथा क्षयरोग आदि हो सकते हैं।
दिसम्बर 1984 की भोपाल गैस रिसाव त्रासदी के जख्म अभी भी भरे नहीं हैं। वर्तमान में भारत की जनसंख्या एक अरब से ऊपर तथा विश्व की छ: अरब से अधिक पहुंच गई है, इस विस्तार के कारण वनों का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है, 10 साल में लगभग 24 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र समाप्त हो गया है। नाभिकीय विस्फोटों से उत्पन्न रेडियोएक्टिव पदार्थों से पर्यावरण दूषित हो रहा है। अस्थि कैंसर, थायरइड कैंसर, त्वचा कैंसर जैसी घातक बीमारियां हो रही हैं। उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट है कि पर्यावरण सम्बन्धी अनेक मुद्दे आज विश्व की चिन्ता का विषय हैं।
पर्यावरण प्रदूषण से निपटने के लिए पूरे विश्व के देश अपने-अपने स्तर पर कार्रवाई कर रहे हैं। साथ ही सामाजिक संस्थाएं भी अपना भरपूर सहयोग दे रही हैं। इसी कड़ी में विश्व प्रसिद्ध संस्था डेरा सच्चा सौदा के पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की पावन रहनुमाई में यहां के श्रद्धालु समय-समय पर लगातार पौधारोपण करते हैं और सार-संभाल भी करते हैं। पौधारोपण के क्षेत्र के डेरा सच्चा सौदा का नाम गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो चुका है।
यहां पर अस्थियों पर पौधे लगाने की परम्परा शुरु की गई, जिसके अंतर्गत हजारों पौधे लगाए जा चुके हैं। पूज्य गुरु जी ने स्वयं पानी को फिर से इस्तेमाल करने की तकनीक विकसित की है, जिससे यहां के खेतों में सिंचाई की जाती है। वैज्ञानिक तरीके से कृषि कार्य कर पानी की बचत व अधिक फसल लेने की तकनीक अपनाई जाती है और इसके लिए किसानों को भी जागरूक किया जाता है। फसल कटाई के बाद अवशेषों को न जलाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जाता है और अवशेषों को जलाने की बजाए इसके इस्तेमाल पर बल दिया जाता है।
अत: आमजन, सामाजिक संस्थाएं, राज्य सरकारें व केन्द्र सरकार को चाहिए कि अपने-अपने स्तर पर प्रयावरण को प्रदूषित करने की बजाय इसे बचाने के प्रयास करें। इसके लिए आवश्यक है कि अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाए जाएं, बिजली व पानी का कम से कम प्रयोग किया जाए, प्राकृतिक संसाधनों का बेजा दोहन न किया, एसी, फ्रिज, मोटर वाहनों इत्यादि का प्रयोग कम से कम किया जाए। इस तरह हर किसी को प्रयास करने होंगे, अन्यथा आने वाले भीषण समय के लिए हर कोई तैयार रहे।
रमेश ठाकुर
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