मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझे कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/ लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंको/और उस जोगी से यह कह दो/महादेव अब इस गंगा को वापिस ले लो/यह जलील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बनकर दौड़ रही है। गंगा और महादेव अपनी नज्म-शायरी और बेशतर लेखन से साम्प्रदायिकता और फिरकापरस्तों पर तंज वार करने वाले राही मासूम रजा का जुदा अन्दाज इस नज्म की चंद लाइनें पढ़कर सहज ही लगाया जा सकता है। 1 अगस्त, 1927 को गाजीपुर के छोटे से गांव गंगोली में जन्में राही को मुकद्दस दरिया गंगा और हिन्दुस्तानी तहजीब से बेपनाह मोहब्बत करने का सबक उस आबो-हवा में मिला जिसमें वे पले-बढ़े। फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुलन्दियों को छू लेने के बावजूद गंगा और गंगोली गांव से उनका यह जज्बाती लगाव आखिर तक कायम रहा। गंगोली से उन्हें बेहद प्यार था।
गंगोली में राही का परिवार छोटे जमीदारों का अपनी परम्पराओं से बंधा हुआ खानदान था। परिवार से जुदा राही बचपन से रेडिकल मिजाज के थे। गलत बात बर्दाशत करना और किसी के आगे झुकना उनकी फितरत में नहीं था। जब आला दर्जे की तालीम के लिए वे अपने बड़े भाई डॉ. मुनीस रजा के पास अलीगढ़ पहुंचे, तब तक अलीगढ़ वामपंथियों का गढ़ बन चुका था। यूनिवर्सिटी में उस समय प्रो. नूरूल हसन, डॉ. अब्दुल अलीम, डॉ. सतीशचंद, डॉ. रशीद अहमद, डॉ. आले अहमद सुरूर जैसे आला वामपंथी शिक्षक मौजूद थे और बिलाशक इसका असर नौजवान राही की पूरी शख्सियत पर भी पड़ा।
राही के अदबी सफर का आगाज शायरी से हुआ और साल 1966 तक आते-आते उनके सात गजल, नज्म संग्रह शाया हो चुके थे। नया साल, मौजे गुल मौजे सबा, रक्से मय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते आदि उनके खास काव्य संग्रहों में शुमार किये जाते हैं। यही नहीं 1857 स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर साल 1957 में लिखा गया उनका एपिक अठारह सौ सशाावन उर्दू और हिन्दी दोनों ही जबानों में प्रकाशित हो बेहद मकबूल हुआ। बचपन में तिलस्में-होशरूबा के किस्सों से मुतास्सिर राही के गद्य लेखन का सिलसिला अलीगढ़ से एक बार जो शुरू हुआ, तो उसे उन्होंने हमेशा के लिए अपना लिया। पढ़ाई के दौरान ही वे अपनी रचनात्मकता और खाली वक्त का इस्तेमाल गद्य लेखन में करने लगे थे।
उस वक्त इलाहबाद के मशहूर पब्लिशर अब्बास हुसैनी उर्दू में निकहत नाम का महाना और जासूसी दुनिया, रूमानी दुनिया जैसे रिसाले निकालते थे, जो आम-ओ-खास दोनों में ही मशहूर थे। राही, शाहिद अख्तर के अलावा अलग-अलग नामों से इन रिसालों में लिखते थे और यहीं से उन्हें पाबन्दी से लिखने की आदत पड़ी। पाबंदी से लिखने की इस आदत का ही सबब था कि वे एक ही समय फिल्मों में पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक, अखबारों में नियमित कॉलम और नज्म, गजल, उपन्यास साथ-साथ लिख लिया करते थे।
हिन्दी अदबी हल्के में उनका आगाज साल 1966 में उपन्यास आधा गांव के जरिये हुआ। शुरूआत में आधा गांव का स्वागत बड़े ठण्डे स्वरों में हुआ। जैसा कि स्वयंसिद्ध है अच्छी रचना का ताप धीरे-धीरे महसूस होता है। आधा गांव की ख्याति और चर्चा हिन्दी-उर्दू दोनों में ही एक साथ हुई। साल 1972 में डॉ. नामवर सिंह कि अनुशंसा पर जोधपुर विशवविद्यालय में आधा गांव को लगाने के फैसले की नैतिकतावादियों, प्रतिशियावादियों ने एक सुर में डॉ. राही मासूम रजा और उनके इस उपन्यास की जमकर आलोचना की। उपन्यास पर अशलील और साम्प्रदायिक होने के इल्जाम लगे। मगर इन आरोपों, आलोचनाओं से राही बिल्कुल नहीं डिगे, बल्कि फिरकापरस्त ताकतों से लड़ने का उनका इरादा और भी ज्यादा मजबूत हो गया।
जो आगे भी उनकी रचनाओं में बार-बार झलकता रहा। अखबारों में लिखे गये उनके कॉलम बेहद तीखे और सख्त होते थे। जिसमें ना ही वे किसी की परवाह करते थे और ना ही किसी को बख्शते थे। मुल्क की आजादी की जद्दोजहद और बंटवारे की आग में हिन्दुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिन्दुस्तान हिजरत करते लाखों लोग राही ने अपनी आंखों से देखे थे, उनके रंजा-गम में वे खुद शामिल रहे थे। लिहाजा साम्प्रदायिकता के घिनौने चेहरे से वे अच्छी तरह से वाकिफ थे। यही वजह है कि साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा की संकीर्णता पर उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए लगातार प्रहार किये।
राही का कहना था धर्म का राष्टÑीयता और संस्कृति से कोई विशेष सम्बंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी, वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा। उन्होंने उपन्यास आधा गांव में इस बात की ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा। बहरहाल भाषाई आधार पर साल 1971 में पाकिस्तान टूटा और बंगलादेश बना। उनकी बात जस का तस सच साबित हुई। आधा गांव विभाजन के पहले शिया मुसलमानों के दुख-दर्द और पाकिस्तान के वजूद को पूरी तरह नकारता है। पाकिस्तान क्या है श कौनो मस्जिद बस्जिद बाय का श आधा गांव में अपने किरदार के मार्फत बुलवाया गया, उनका यह संवाद हिन्दुस्तान के दूरदराज के गांव में बसने वाली अवाम का भोला-भाला चेहरा दिखलाता है, जो शपरी सतह पर चलने वाली सियासत और जंग से पूरी तरह अंजान हैं और जिसके लिए अपनी जन्म-कर्मभूमि ही उसका मुल्क है। गांव में बिना किसी विद्वेशा के सदियों से संग रहने वाले बाशिन्दों के दिलों के तआल्लुक हुकूमतों द्वारा खींच दी गई सरहदों के बावजूद आज भी अटूट हैं।
टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज, सीन 75, कटरा बी आर्जू, असंतोशा के दिन राही मासूम रजा के दीगर उपन्यास हैं। आपातकाल के बाद लिखा गया उनका उपन्यास कतरा भी आरजू आपातकाल की भयावयता पर आधारित है। राही ने उपन्यास और उस दौर में लिखे अपने नियमित कॉलमों में आपातकाल की खुलकर मुखालिफत की। इमर्जेन्सी के दौरान कुछ लेखक बुद्धिजीवियों की चुप्पी और तटस्थता से वे बेहद निराश थे। किसी भी मुल्क में आन पड़ी ऐसी घड़ियों को वे निर्णायक मानते थे, जिसमें आपकी प्रतिबद्धता, पक्षधरता सामने आती है। जिसका कि असर भावी समाज और आने वाली पीढ़ियों पर पड़ता है। कॉलम विभाजन के रास्ते में इसके मुतअल्लिक राही लिखते हैं इन बुद्धिजीवियों, साहित्यकारो, विचारकों ने इमर्जेन्सी लगने के बाद डर के मारे जो चुप्पी साधी थी, वह चुप्पी अब तक नहीं टूटी है। साल 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे हों या अयोध्या-बाबरी मस्जिद के प्रसंग के चलते मुल्क में बढ़ती जा रही साम्प्रदायिकता ऐसे कई मुद्दों पर समाज में फैलती जा रही खामोशी से वे हैरान-परेशान रहते थे। अपने लेखन के जरिए वे अक्सर ऐसे सवालों से जूझते-टकराते रहे।
राही ने साम्प्रदायिकता के विभिन्न पक्षों को अपने उपन्यास और लेखों में समय-समय पर रेखांकित किया। उनके उपन्यासों में अतीत की निर्मम आलोचना है और वे अतीत और वर्तमान में संवाद स्थापित करने में कामयाब रहे हैं। अपने माजी से सबक लेकर आज और मुस्तकबिल को सुनहरा बनाने की यह कवायद बार-बार उनके उपन्यासों में देखने को मिलती है। राही साल 1967 तक अलीगढ़ मुस्लिम विशवविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक रहे। अलीगढ़ से वे जब मुम्बई पहुंचे, तो वहां आर.चन्द्रा और भारत भूषण ने उनकी मदद की। राही के दोस्त कृष्ण चन्दर, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र सिंह बेदी और कैफी आजमी ने उन्हें फिल्मों में संवाद और स्शिप्ट लिखने की सलाह दी। बहरहाल फिल्मों में उन्होंने जो एक बार रूख किया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिल्में उनकी रोजी-रोटी का जरिया थीं, तो साहित्यिक-रचनात्मक लेखन से उन्हें दिली खुशी मिलती थी। धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के लिए राही ने निरंतर स्तम्भ लेखन का कार्य किया।
राही ने तकरीबन 300 फिल्मों की पटकथा संवाद लिखे। दूरदर्शन के धारावाहिक महाभारत में लिखे गये उनके संवादों ने उन्हें घर-घर में मशहूर कर दिया। महाभारत की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था। इस धारावाहिक को लिखने के लिए उन्होंने काफी मेहनत कर तथ्य इकट्ठा किए थे। हिन्दी-उर्दू दोनों ही जबानों में अधिकार के साथ लिखने वाले राही उर्दू जबान के शायर थे, तोे हिन्दी के उपन्यासकार। उर्दू जबान को फरोग करने के लिए देवनागरी लिपि अपनाने की उन्होंने खुलकर वकालत की। लेकिन उर्दू का रस्मुलखत बिल्कुल से छोड़ दिया जाये, वे इसके खिलाफ थे। उनके उपन्यास आधा गांव को देखें, तो उसमें अवधी मिश्रित हिन्दी-उर्दू का जमकर इस्तेमाल हुआ है।
इस बात से यह एहसास होता है कि वे किसी भाषाकी बिना पर क्षेत्रीय बोली, भाषाकी कुबार्नी के हामी नहीं थे। जहां तक भाशााई-शुद्धता का सवाल है, राही भाशााई-शुद्धता पर एक जगह लिखते हैं कि जमीन को जमीन लिख देने से उसके मायने नहीं बदल जाते। समाजवादी विचारधारा के हामी राही मासूम रजा का सपना हिन्दुस्तान को एक समाजवादी मुल्क में साकार होता देखना था। लेकिन समाजवाद का मॉडल कैसा हो, उसमें कितने कारक काम करेंगे और किस तरह से अपने कामों को सरअंजाम देंगे श, उनके मुताबिक यह सारी की सारी प्रशिया पूरी तरह से हिन्दुस्तानी परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए, नहीं तो भटकाव-टूटन होना लाजिमी है। उपन्यास कटरा बी आर्जू में अपने किरदार के मार्फत कहलवाया गया उनका यह संवाद हिन्दुस्तान की मौजूदा परिस्थितियों में प्रासंगिक जान पड़ता है-सोशल-इज्म के आये में बहुत देरी हो रही है। सोशल-इज्म में यही तो डबल खराबी है कि फारेन में नहीं बन सकती। कपड़े की तरह बदन की नाप की काटे को पड़ती है।
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