बिहार में महागंठबंधन सरकार के दो साल भी पूरे नहीं हुए हैं कि वह दरकते हुए दिखाई देने लगा है। कल तक गलबहियां डाल कर चलने वाले नेता आज एक-दूसरे का गला टीपने को तैयार हैं।
महागंठबंधन में शामिल राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू) और कांग्रेस पार्टी, जो कभी एक-दूसरे के नूर-ए-नजर थे, अब एक-दूसरे को फूटी आंखों भी नहीं सुहा रहे।
‘चट्टानी एकता’ चटखने लगी है और अब महागंठबंधन के भविष्य के बारे में कयासों का दौर शुरू हो गया है। यूं तो फिलहाल सरकार के अस्तित्व को कोई विशेष खतरा नहीं दिखाई दे रहा है, लेकिन अविास का आलम जरूर पसरने लगा है।
यह आत्मविश्वास भविष्य में क्या गुल खिलाएगा, इसके बारे में अभी निश्चित रूप से कुछ कहना तो कठिन है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यदि गंठबंधन की सरकार अपना पूरा टर्म नहीं पूरा कर पाती है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। यूं तो गठबंधन के भविष्य को लेकर आशंका तभी सिर उठाते दिखाई देने लगी थी, जब सरकार का गठन भी नहीं हुआ था।
चुनाव में मिली जबरदस्त जीत के बाद जिस तरह राजद के नेताओं ने बयान देना शुरू कर दिया था कि चूंकि राजद को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं, इसलिए मुख्यमंत्री का पद उसी को मिलना चाहिए। लेकिन लालू यादव ने दूरदर्शिता दिखाते हुए यह कहकर इस विवाद को निपटाया कि महागठबंधन ने नीतीश की अगुआई में चुनाव जीता है, इसलिए मुख्यमंत्री पद की उनकी दावेदारी पर सवाल उठाना लाजिमी नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश ने राष्ट्रपति पद के लिए विपक्षी पार्टियों द्वारा समर्थित उम्मीदवार मीरा कुमार की जगह राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गंठबंधन (एनडीए) समर्थित उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को अपना समर्थन देने का एलान कर दिया।
नीतीश कुमार का यह निर्णय महागंठबंधन के अन्य सहयोगियों राजद और कांग्रेस के गले नहीं उतर पाया और वे उनकी आलोचना में उतर आए। लालू ने नीतीश के निर्णय की आलोचना करते उसे ऐतिहासिक भूल करार दिया और कहा कि उन्हें इस गलती की कीमत चुकानी होगी।
कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद ने आलोचना को और भी धारदार बनाते हुए कह दिया कि जो लोग एक सिद्धांत में विश्वास करते हैं, वे एक निर्णय लेते हैं, लेकिन जो अनेक सिद्धांत में विश्वास करते हैं, वे अलग निर्णय लेते हैं। इसी बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर विपक्षी एकता पर निशाना साधते हुए कहा है कि उसकी राजनीति एजेंडा विहीन है।
नीतीश की नजर में विपक्ष की एकता के पास कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं है, जबकि जीत के लिए अल्टरनेटिव नैरेटिव का होना आवश्यक है। नीतीश ने गुलाम नबी आजाद पर पलटवार करते हुए रविवार को पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में कहा कि कांग्रेस ने पहले गांधी के विचारों को छोड़ा, आगे चलकर नेहरू को भी त्याग दिया।
चंद रोज पहले दिए गए जद यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी के इस बयान का मतलब समझना कतई कठिन नहीं है कि जद यू एनडीए में ज्यादा सहज था। दरअसल, बिहार में महागठबंधन शुरू से ही बीजेपी की आंखों में खटकता रहा है।
उसे पता है कि अगर अगले लोक सभा चुनाव तक यह महागठबंधन अस्तित्व में रह गया, तो बीजेपी पिछले लोक सभा चुनाव वाला करिश्मा दिखाने में कामयाब नहीं हो पाएगी।
इसलिए बीजेपी इशारों-इशारों में लालू यादव के साथ गठबंधन तोड़ने की स्थिति में नीतीश को समर्थन देने की बात करती रही है। ऐसे में बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार का ताजा बयान राजनीतिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है कि नीतीश हिम्मत दिखाएं, राज्य में अगर गठबंधन टूटता है तो हम राजनीतिक अस्थिरता पैदा नहीं होने देंगे।
बिहार में यदि महागठबंधन कायम नहीं रह पाता है, तो यह केवल लालू ही नहीं, नीतीश को भी कमजोर करेगा। राजद से अलग होने की स्थिति में वोटरों का एक बड़ा तबका नीतीश से अलग हो जाएगा।
आज भले ही नीतीश कहें कि 2019 में वह प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नहीं होंगे, लेकिन इस सच से वह कैसे मुकर सकते हैं कि 2014 में वह मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी के खिलाफ ही एनडीए से अलग हुए थे।
अब अगर वह इतनी जल्दी फिर से एनडीए में शामिल होते हैं, तो जाहिर है कि उनकी राजनीतिक साख कम होगी और कम होगा उनमें मतदाताओं का भरोसा भी।
वास्तव में महागठबंधन के अस्तित्व को चुनौती देकर जहां एक तरफ अपनों के साथ-साथ विरोधियों को भी यह संकेत देना चाहते हैं कि वास्तव में सरकार के मुखिया वही हैं, वहीं लालू को बेलगाम होने से रोककर अपनी सुशासन वाली छवि बरकरार रखना चाहते हैं। यही कारण है कि नीतीश कभी गरम तो कभी नरम रूख अख्तियार कर रहे हैं।
-कुमार नरेन्द्र सिंह
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